मध्य प्रदेश में ओबीसी (अन्य पिछड़ा वर्ग) को 27% आरक्षण देने के मुद्दे पर देश की सबसे बड़ी अदालत में गुरुवार को एक बार फिर अहम सुनवाई होनी थी, लेकिन यह मामला एक बार फिर टल गया। सुप्रीम कोर्ट में आज, 9 अक्टूबर 2025 (गुरुवार) को होने वाली सुनवाई अब नवंबर के पहले सप्ताह तक के लिए टाल दी गई है। यह लगातार तीसरी बार है जब इस मुद्दे पर सुनवाई आगे बढ़ी है।
सॉलिसिटर जनरल ने मांगा अतिरिक्त समय
सुनवाई के दौरान सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने अदालत से इस मामले पर और समय देने का अनुरोध किया। उन्होंने कहा कि यह मामला सिर्फ आरक्षण के प्रतिशत का नहीं, बल्कि इसमें कई तकनीकी और संवैधानिक पहलू शामिल हैं जिनके अध्ययन और विश्लेषण के लिए और समय की आवश्यकता है। तुषार मेहता ने कोर्ट को बताया कि राज्य सरकार इस संबंध में विस्तृत डेटा तैयार कर रही है, ताकि अदालत के समक्ष तथ्यात्मक और कानूनी दोनों पक्षों को स्पष्ट रूप से रखा जा सके। अदालत ने उनकी इस दलील को स्वीकार करते हुए सुनवाई को नवंबर तक के लिए स्थगित कर दिया।
सुप्रीम कोर्ट के लिए फैसला करना क्यों मुश्किल हो रहा
इससे पहले बुधवार को हुई सुनवाई में सुप्रीम कोर्ट ने यह संकेत दिया था कि वह मामले को वापस मध्य प्रदेश हाईकोर्ट भेज सकता है। अदालत ने कहा कि हाईकोर्ट का इस पर अभी कोई अंतिम निर्णय नहीं आया है, और जब तक निचली अदालत की विस्तृत टिप्पणियां नहीं मिलतीं, तब तक सुप्रीम कोर्ट के लिए किसी निष्कर्ष पर पहुंचना मुश्किल है। मुख्य न्यायाधीश ने यह भी कहा कि इस मसले में कई स्थानीय और तथ्यात्मक पहलू हैं, जिन पर हाईकोर्ट ज्यादा गहराई से सुनवाई कर सकता है — जैसे राज्य की जनसंख्या का वितरण, भौगोलिक विविधता और सामाजिक-सांस्कृतिक संरचना।
SC विचार कर रहा है कि मामला वापस हाईकोर्ट भेजा जाए
सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि वह इस मामले में दिए गए अंतरिम आदेश को रद्द कर इसे फिर से हाईकोर्ट के पास भेजने पर विचार कर रहा है। अदालत का तर्क है कि हाईकोर्ट को प्रदेश की डेमोग्राफी (जनसांख्यिकी) और टोपोग्राफी (भौगोलिक स्थिति) का बेहतर ज्ञान है, इसलिए वही इस पर विस्तृत सुनवाई कर सकता है। इससे मामले के सामाजिक और प्रशासनिक प्रभावों का आकलन भी बेहतर ढंग से हो सकेगा।
ओबीसी आरक्षण विवाद की पृष्ठभूमि
मध्य प्रदेश सरकार ने साल 2019 में ओबीसी वर्ग के लिए आरक्षण 14% से बढ़ाकर 27% करने का फैसला किया था। यह निर्णय उस समय राजनीतिक और सामाजिक दोनों स्तरों पर बड़ा कदम माना गया था। हालांकि, कुछ याचिकाकर्ताओं ने इस फैसले को चुनौती देते हुए कहा था कि इससे कुल आरक्षण की सीमा 50% से अधिक हो जाएगी, जो सुप्रीम कोर्ट की निर्धारित सीमा का उल्लंघन है। हाईकोर्ट ने शुरुआती सुनवाई में इस वृद्धि पर अस्थायी रोक लगा दी थी, ताकि राज्य सरकार अपने पक्ष में ठोस आंकड़े और औचित्य पेश कर सके।
हाईकोर्ट की टिप्पणियां और फैसला
इसके बाद जब मामले की सुनवाई आगे बढ़ी, तो हाईकोर्ट ने कई याचिकाओं को खारिज कर दिया। अदालत ने कहा कि वे याचिकाएं सीधे तौर पर संशोधित अधिनियम को चुनौती नहीं दे रही थीं, इसलिए उन्हें “not maintainable” माना गया। बाद में, 28 जनवरी 2025 को एमपी हाईकोर्ट की डिवीजन बेंच ने महत्वपूर्ण फैसला सुनाते हुए कहा कि राज्य सरकार द्वारा अपनाया गया 87:13 का फॉर्मूला आरक्षण के लिए उपयुक्त नहीं है। इस फॉर्मूले के तहत आरक्षण को लागू करने पर अदालत ने रोक लगाई और सरकार को इस दिशा में नए सिरे से काम करने के निर्देश दिए।
आगे क्या होगा: नवंबर में तय हो सकता है बड़ा रास्ता
अब यह मामला फिर से सुप्रीम कोर्ट के पास है, लेकिन शीर्ष अदालत के संकेतों से स्पष्ट है कि यह विवाद जल्द खत्म नहीं होगा। अगर कोर्ट ने इसे हाईकोर्ट को वापस भेजने का फैसला किया, तो राज्य सरकार को नए सिरे से आंकड़े और रिपोर्ट्स प्रस्तुत करनी होंगी। राजनीतिक दृष्टि से यह मुद्दा बेहद संवेदनशील है, क्योंकि मध्य प्रदेश में ओबीसी वर्ग की आबादी लगभग 50% से अधिक है, और आरक्षण का यह अनुपात सीधा राजनीतिक प्रतिनिधित्व और भर्ती प्रक्रिया को प्रभावित करता है।