अजय बोकिल
जिस तरह होली की बुझती अंगार से घर का चूल्हा सुलगाने की लोक परंपरा है, कुछ उसी तरह राजनीति भी लाशों पर जातीय सियासत के शोले भड़काने से नहीं चूकती। ताजा उदाहरण यूपी में अपराधी डाॅन विकास दुबे के एनकाउंटर की आड़ में ब्राह्मण संवेदनाओं को खाद-पानी देने की कोशिश का है। अपनी सोशल इंजीनियरिंग के नए सीक्वल में बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो मायावती ने विकास दुबे की ‘हत्या’ को जातिवादी रंग देते हुए ट्वीट किया कि दुबे के गलत कार्यो के लिए (समूचे) ब्राह्मण समुदाय को निशाना न बनाएं। उधर कांग्रेस नेता व पूर्व केन्द्रीय मंत्री जितिन प्रसाद ने एक वीडियो संदेश जारी कर अपने सजातीय ब्राह्मणों से आह्वान किया कि वो अपने निजी मतभेद भुलाकर राज्य की योगी सरकार द्वारा पेश की गई ‘चुनौती’ से लड़ने के लिए एकजुट हों। एक और कांग्रेसी तथा ‘ब्राह्मण सेना’ के नेता स्वयं प्रकाश गोस्वामी ने कहा कि वे विकास दुबे जैसे अपराधियों का समर्थन नहीं करते, लेकिन पुलिस द्वारा की गई उसकी ‘हत्या’ का विरोध करते हैं।
इन तमाम बयानों का मकसद यह संदेश देना है कि यूपी के ‘योगी राज’ में ब्राह्मणों को व्यवस्थित तरीके से खत्म करने का अभियान चल रहा है। वैसे भी विकास दुबे एनकाउंटर का अहम पक्ष यह है कि इससे जुड़े तकरीबन सभी किरदार ब्राह्मण ही हैं। मारे गए सीओ मुखबिरी करने वाला एसएचओ , अपराधी विकास दुबे और उसके साथी ( ब्राह्मण) गैंगस्टर, जिस गांव में पुलिसवालों की हत्या हुई वो भी ब्राह्मणबहुल है और जिस थाने के अंतर्गत यह कांड हुआ, उसका नाम भी चौबेपुर है। केवल जिस सरकार ने मारा, उसके मुखिया जरूर अ-ब्राह्मण संन्यासी हैं। हालांकि उनकी जाति भी ओपन टैक्स्ट फाइल की तरह है। उत्तर प्रदेश जैसे घोर जातिवादी राज्य में सत्ता जातिवादी गिरोहबंदी से ही नियंत्रित और संचालित होती है।
जब तक समाज पर ब्राह्मणों का वर्चस्व रहा, वो अपनी बौद्धिक प्रखरता और पूर्वाग्रहों के साथ धार्मिक-राजनीतिक सत्ता कायम रख सके। लेकिन बीते तीन दशकों में हुई सामाजिक उथल पुथल, आर्थिक-सामाजिक बदलाव और नए जातीय समीकरणों ने ब्राह्मणों को हाशिए पर जाने को मजबूर कर दिया है। उनका राजनीतिक वर्चस्व तो पहले ही कमजोर पड़ चुका था, अब सामाजिक वर्चस्व भी वेंटीलेटर पर है। इसलिए ब्राह्मण समाज में अपनी राजनीतिक पहचान बनाए और बचाए रखने की गहरी जद्दोजहद जारी है। यूपी में यह सतह पर इसलिए दिखाई पड़ती है, क्योंकि देश में सबसे ज्यादा ब्राह्मण इसी राज्य में हैं। उनकी राजनीतिक लामबंदी चुनाव नतीजों को निर्णायक रूप से प्रभावित करती है।यूं अपराधी की कोई जाति नहीं होती, लेकिन विकास दुबे प्रकरण ने दबे पांव यह मैसेज दे दिया है कि ब्राह्मणत्व और अपराध में किसी तरह अबोला नहीं है बल्कि अपराधी ब्राह्मण तो और ज्यादा खतरनाक हो सकता है, क्योंकि उसके ‘द्विजत्व’ को नकारात्मक बुद्धि अत्यािधक घातक बना देती है।
यूं ब्राह्मणों पर दलित दमन का गंभीर आरोप शुरू से लगता रहा है। हकीकत में यह उतना सही नहीं है, क्योंकि ब्राह्मणों ने समाज नियंता के रूप में ( कुछ हद तक पक्षपाती भी) अपनी भूमिका निभाई, लेकिन दलितों पर तुलनात्मक रूप से ज्यादा अत्याचार ( खासकर आजादी के बाद) उन जातियों ने किए, जिनके हाथों में जमीनें थीं। यूपी में जातिवादी राजनीति के नए सिरे से उभार के पहले तक ब्राह्मण कांग्रेस के साथ सुविधाजनक स्थिति में थे। लेकिन मंडल राजनीति के पश्चात ब्राह्मण वहां अपनी खोई सियासी जमीन अभी तक हासिल नहीं कर सके हैं। कांग्रेस के पतन के साथ ही उनका मुकुट छिन गया और भाजपा ने मानो इस समुदाय के पांव भी छीन लिए। वो जाएं तो जाएं कहां और किसके आसरे ? इसी बेबसी को भांपकर मायावती ने 2007 में दलित-ब्राह्मण-मुस्लिम काॅकटेल बनाकर अकेले सत्ता हासिल कर ली थी, लेकिन वह राजनीतिक प्रयोग भी वास्तव में ब्राह्मणों की राजनीतिक आभा को मंद करने वाला ही था। नतीजतन ब्राह्मण फिर उस भाजपा की तरफ मुड़े जिस पर खुद ‘ब्राह्मणवादी’ अथवा ‘मनुवादी संस्कृति’ को पुनर्जीवित करने का आरोप लगता रहा है। लेकिन विडंबना यह कि एक कथित रूप से ब्राह्मणवादी मानस वाली पार्टी में भी ब्राह्मणों को सूत्रधार बने रहने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है।
दुर्भाग्य से विकास दुबे प्रकरण को इसी ‘राजनीतिक अवसाद’ का निमित्त बनाने की कोशिश की जा रही है। दूसरे शब्दों में कहें तो बंदूक के न्याय को ब्राह्मणों के दमन की शक्ल देने का खेल शुरू हो चुका है। इसी के मद्देनजर कांग्रेस नेता जितिन प्रसाद ने कहा कि अपराधी को दंड देने की जिम्मेदारी अदालत की है। पुलिस को बंदूक से फैसला करने की अनुमति नहीं दी जा सकती। मारे गए अपराधी एक समुदाय से थे, यह महज संयोग नहीं हो सकता। यूपी में ‘शोषित कांग्रेस सवर्ण’ नामक एक वाॅ्टस एप ग्रुप भी सक्रिय बताया जाता है। इसमें विकास दुबे प्रकरण के बाद ब्राह्मणों में व्याप्त गुस्से की अभिव्यक्ति हो रही है। चर्चा यह भी है कि इस ग्रुप ने ‘योगी राज’ में मारे गए ‘ब्राह्मणों’ की सूची जारी की है, जिनमें आरोपियों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई।
जाहिर है कि ब्राह्मणों के हाशिए पर जाने की हताशा को विकास दुबे कांड की छाया में सुलगाया जा रहा है, यह कितनी कामयाब होगी, अभी कहना मुश्किल है। इसीलिए बसपा सुप्रीमो मायावती ने सिलसिलेवार ट्वीट में कहा कि ‘ वे ( ब्राह्मण) आतंकित हैं और भय में जी रहे हैं। इस पर गौर करने की जरूरत है। मायावती ने भाजपा को नसीहत दी कि वह विकास दुबे के नाम पर राजनीति न करे और ऐसा कुछ भी करने से बाज आए, जिससे ब्राह्मणों में भय पैदा हो। उन्होंने कहा कि राज्य सरकार को लोगों का विश्वास हासिल करने की जरूरत है और विकास मामले में मजबूत सबूत के आधार पर ही कार्रवाई करने की जाए।
इसे हम मायावती और कांग्रेस की अपनी-अपनी सोशल इंजीनियरिंग का टीजर भी मान सकते हैं। क्योंकि यह मैसेज देने की लगातार कोशिश की जा है कि भले ही भाजपा को खुद के पैरों पर खड़े होने तक ब्राह्मणों ने अर्घ्य दिया हो, लेकिन उनकी अपेक्षाओ का सूरज वहां भी ढलान पर है। सामाजिक समरसता के चक्कर में उनका बैंक अकाउंट ही सबसे ज्यादा खाली हो रहा है। अगर समझौतों का च्यवनप्राश खाकर ही जीना है तो क्यों न फिर दलितों के साथ अपने अरमानों को शेयर करें और बदले में सत्ता में हिस्सेदारी पाएं। आपको भले ही यह ‘भिक्षा’ लगे, लेकिन हम उसे ‘ब्रह्मदेय’ के भाव से ही देंगे।
इस पूरे घटनाक्रम का चिंताजनक पहलू यह है कि शातिर अपराधी विकास दुबे के मारे जाने के बाद उसके प्रति तिरस्कार पैदा होने के बजाए ब्राह्मणों के एक वर्ग में सहानुभति का भाव हिलोरें लेने लगा है। दुबे को ब्राह्मणों का ‘राॅबिनहुड’ तक बताने कोशिश की जा रही है। यानी जिस एनकाउंटर को मुजरिमों के लिए नजीर बनना चाहिए था, वह एक समुदाय के सामाजिक-राजनीतिक दमन की पीर में तब्दील होने का अहसास कराया जा रहा है। यह सुगबुगाहट अगर तूफानी लहरों में बदली तो उत्तर प्रदेश की गाड़ी पर ‘राम राज’ की जगह ‘रावण राज’ की नंबर प्लेट लगने में देर नहीं लगेगी। बीच में यह खबर भी वायरल हुई थी कि बसपा ने राज्य में ‘ब्राह्मणो के पैर छुओ ’ अभियान छेड़ दिया है, ताकि उनका राजनीतिक आशीर्वाद लिया जा सके। हालांकि बाद में इस खबर का पार्टी ने खंडन भी कर दिया।
विकास दुबे के बहाने ब्राह्मणों के दमन की बात एक हद तक सही हो सकती है। लेकिन क्या वास्तव में ऐसा है? किसी अपराधी के चरित्र से किसी समुदाय की प्रतिष्ठा और प्रामाणिता से जोड़ना सही नहीं है। बदकिस्मती से आजकल सत्कर्म के बजाए दुष्कर्मों को जाति की छाया में महिमामंडित करने और उसी हिसाब से इंसाफ को भी तौलने का नया और गलत चलन शुरू हो गया है। शास्त्रों के अनुसार ब्राह्मण आठ प्रकार के होते हैं। इनमें एक ‘मात्र ब्राह्मण’ भी होते हैं। यानी जो जाति से भले ही ब्राह्मण हो, लेकिन कर्म से अ-ब्राह्मण हैं। विकास को इसी श्रेणी में रखा जा सकता है। उसके एनकाउंटर पर विवाद हो सकता है, लेकिन उसके कर्म ब्राह्मणोचित थे, यह मान लेना भी हकीकत की आंखों पर वोटों का चश्मा चढ़ाने जैसा है। विकास का यूं मार दिया जाना ‘राक्षस राज’ हो सकता है, लेकिन इससे पूरा ब्राह्मण समुदाय ही ‘राम राज’ से बेदखल कर दिया गया है, ऐसा भी नहीं है।