हैप्पीनेस कोच की भूमिका में रहते थे पंड्या जी

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रविंद्र पंड्या 28 जुलाई की सुबह नहीं रहे। उनका जन्म 17 अप्रैल 1949 को हुआ था। समाचार और आलेख लेखन में उनकी दक्षता देखने को मिली। साथ ही इतिहास अध्ययन में गहरी रुचि , जनसंपर्क के उपकरणों के सही इस्तेमाल, जल संरक्षण और पर्यावरण से जुड़े विषयों पर लेखन और व्यवहार में सहज भोलापन उनकी विशेषता और जीवन की पहचान बनी। बहुत गंभीर विषयों के प्रति अध्ययन शील बने रहना और अपनी विचारधारा के साथ बिंदास शासकीय सेवा करने वाले पंड्या जी घटनाओं पर पैनी नजर रखते थे ।

रविंद्र पंड्या रिटायर होने के बाद कुछ समय एक निजी संस्थान में रहे लेकिन उनका मन उकता गया और सोशल मीडिया पर विभिन्न ज्वलंत मुद्दों पर राय व्यक्त करने में खुद को व्यवस्त कर दिया था उन्होंने।उनकी जिंदगी की शाम उदास नहीं थी। उमंग,उल्लास उनकी बातचीत में दिखता था।आशावाद और जीने की चाह ऐसी ही होना चाहिए,है व्यक्ति में।वे सबको हंसा भी देते थे। चर्चा करने बैठा आदमी मुस्कराकर ही उनके कक्ष से बाहर निकलता था। वे सही अर्थ में हैप्पीनेस कोच की तरह थे। चेहरे पर सौम्य मुस्कुराहट लिए लंबे ऊंचे कद वाले रविंद्र पंड्या जी गुणों से भी ऊंचे थे। वे एक लोकप्रिय जनसंपर्क अफसर थे।

मैंने उनके साथ बहुत साल कार्य करने का सौभाग्य मिला। इतिहास विषय में उनकी गहरी रुचि थी। मध्यकालीन भारतीय इतिहास के अध्ययन में लगे रहते थे। कई बार जब प्राचीन काल के वृतांत बताते तो ऐसा लगता हम इतिहास की कक्षा में किसी शिक्षक का लेक्चर सुन रहे हैं। अक्सर इतिहास की कुछ पुस्तकों का बार बार जिक्र करते थे। जैसे अलबरूनी ने भारत के बारे में जो लिखा उसका विशेष ज्ञान पंड्या जी को था। एक बार नसरुल्लागंज के पास एक दौरे से लौटते में पुरातात्विक धरोहर देखने के लिए कुछ ग्रामों में ले गए थे। उदयगिरी,सांची ,ग्यारसपुर, भीमबेठका, आशापुरी और भोजपुर में, उनके साथ भ्रमण कर मुझे अनेक नए तथ्यों की जानकारी उनसे मिली। ऐसी यात्राओं में वे बहुत आनंद का अनुभव करते थे। पंड्या के पिता श्री रमाशंकर पंड्या सागर नगर पालिका के पदाधिकारी भी रहे।

बड़े बाजार क्षेत्र के निवासी थे, बाद में पंड्या सेंट्रल क्रॉनिकल जो उस समय एमपी क्रॉनिकल कहलाता था, उसके रायपुर संस्करण में कार्य करने चले गए। रविंद्र पंड्या आपातकाल के दौर में काफी महत्वपूर्ण जिम्मेदारी का निर्वहन कर रहे थे। प्रेस सेंसरशिप लागू हुई। उस समय एक पत्रकार की आत्मा लिए जनसंपर्क अधिकारी के रूप में उन्होंने अखबारों की स्वतंत्रता में कम से कम दखल होने दिया। रायपुर में अखबारों के पृष्ठ छपने के पहले वे जांचते थे,ऐसी व्यवस्था सरकार ने बनाई थी और तत्कालीन व्यवस्था एवम निर्देशों के अनुरूप आवश्यक संशोधन भी वे करते थे लेकिन उनका मन यह कहता था कि यह सेंसरशिप समाप्त होना चाहिए। इसका कई अवसरों पर उन्होंने जिक्र भी किया और तत्कालीन सरकार का कोप भाजन भी उन्हें आगे चलकर होना पड़ा।

बिंदास स्वभाव के पंड्या जी यात्राओं में बिना थके कार्य करते थे, चाहे शिवराज सिंह चौहान की नर्मदा सेवा यात्रा हो या इसके पहले जब जिलों में और सुदूर ग्रामीण अंचलों में जनसंपर्क की तरफ से छायाचित्र प्रदर्शनी लगा करती थी,फिल्मों के प्रदर्शन किए जाते थे, तब पंड्या की नेतृत्व और मार्गदर्शन क्षमता देखते ही बनती थी। वे जनसंपर्क विभाग में रहते हुए नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण में भी प्रतिनियुक्ति पर गए। इस बीच उन्होंने जल संरक्षण और पर्यावरण से संबंधित अपने पूर्व अध्ययन में इजाफा किया और इससे जुड़े उनके कुछ आलेख बहुत चर्चित रहे जैसे अपने से दूर हो रहे पानी को रोकिए, संकटकाल में जनसंपर्क की भूमिका ,जल बचेगा तो हम बचेंगे।
राजनीतिक उथल-पुथल के बीच कैसी हो जनसंपर्क अधिकारी की भूमिका

एक शिक्षाप्रद व्यंग्यात्मक आलेख उन्होंने मुझसे लिखवाया था। उस लेख का शीर्षक था कैसा हो विमोचन कार्यक्रम इस आलेख में बताया गया था कि वीआईपी के समक्ष विमोचन या लोकार्पण के लिए जब पुस्तक लाई जाए तो उसकी पैकिंग बहुत साधारण होना चाहिए ताकि वह कुछ ही सेकंड में खुल जाए क्योंकि इस पैकेट को कोरियर से नहीं भेजना है, न ही वी आई पी के पास इतना अधिक समय नहीं होता कि दो-तीन मिनट पुस्तक की पैकिंग को ही खोलते रहें। ज्यादा देर लगने से सभी के मन में खिन्नता उत्पन्न होती है ,इसलिए बहुत हल्की धागे की गठान होना चाहिए।बेहतर होगा कि गिफ्ट पेपर अथवा अखबारी कागज में बिना सेलो टेप लगाए पुस्तक विमोचन के लिए प्रस्तुत की जाए।
वे सामाजिक घटनाओं पर भी बारीक नजर रखते थे।

राजनीतिक घटनाक्रम को भांप लेते थे लेकिन तटस्थ रहकर अपना कार्य करते थे। यही वजह है कि किसी भी दल की सरकार रही हो उन्हें उनकी कार्यशैली या विचारधारा के कारण समस्या सामने नहीं आई। पंड्या ने जूनियर ऑफिसर वर्ग को बहुत आगे बढ़ाया। पंडया जी के स्वभाव में एक बालक विद्यमान था,बातचीत में भी एक किस्म का भोलापन था और वे किसी भी व्यक्ति के बारे में पूर्वाग्रह रखकर या अन्य व्यक्ति की स्थापित धारणा लेकर कार्य नहीं करते थे । यही उनकी निष्पक्षता थी। रविंद्र पंड्या इतने मिलनसार थे कि पत्रकार वर्ग में महत्वपूर्ण ना समझे जाने वाले लोगों को भी महत्व देते थे। यह उनकी विशेषता थी। संवाद के मामले में सभी प्रमुख पत्रकारों से उनका जीवंत संपर्क और संवाद होता था। जनसंपर्क में इंटरनेट ,कंप्यूटर ,फैक्स मशीन के अधिकतम उपयोग के उन्होंने न सिर्फ उदाहरण प्रस्तुत किए बल्कि जनसंपर्क के उपकरणों के सही इस्तेमाल की सीख और समझ भी अन्य अधिकारी साथियों में विकसित की।

विलक्षण व्यक्तित्व के धनी पंडया जी का कल अवसान हो गया।इस साल सेकेंड वेव के खतरनाक दौर अप्रैल और मई महीने में हम लोगों ने साथ साथ ही कोरोना की पीड़ा भोगी । अस्पताल से एक दूसरे से मोबाइल फोन पर हम बात करते थे और तब से मुलाकात का सिलसिला नहीं जमा था। मेरा ऐसा अनुमान है कि वे कुछ पोस्ट कोविड दिक्कतों को अनुभव कर रहे थे। हृदय रोग को तो उन्होंने काफी वर्ष से नियंत्रित कर रखा था। बुधवार को सुबह की सैर में उन्हें अचानक तकलीफ हुई और तत्काल अस्पताल पहुंचाने के बाद भी उन्हें नहीं बचाया जा सका।
उन्हें भाव भीनी श्रद्धांजलि।