अनिल त्रिवेदी
कुदरत ने हम सब को घुमक्कड़ी करने के लिये ही दो पैर दिये हैं।पर ज्ञान विज्ञान और तकनीक के विस्तार ने पैर पैदल घुमक्कड़ी को पीछे धकेल कर सुबह शाम के एक रस पैदल टहलने की रस्म अदायी में बदल दिया हैं।एक जोड़ी मनुष्य के पैरों ने धरती के चप्पे चप्पे पर अपनी पद छाप छोड़ी है।गर्मी से तपता रेगिस्तान हो या हाड़तोड़ ठण्डक वाला हिमालय सब को घुमक्कड़ी करनेवालों ने अपने पैरों से नापा हैं।घुमक्कड़ी धरती मां की गोद में खेलते रहने जैसा आनन्ददायी अनुभव है जिसे हम सब अपनी जीवन यात्रा में निरन्तर पाते हैं।धनाजंगल तो धुमक्कड़ी का अंतहीन खजाना हैं।दरिया किनारा हो या पहाड़ी नदी के साथ कदमताल करने की आनन्ददायक अनुभूति को पैदल घुमक्कड़ी करने वाले ही अनुभव कर पाते हैं।आज की साधनों की अति वाली दुनिया में पैदल घुमक्कड़ी का चलन थोड़ा सिमटा हैं पर मिटा नहीं हैं।पैदल धुमने का रोमांच यह हैं की हम हर क्षण नयी जमीन और हर क्षण नये आसमान के साथ आगे बढ़ते हैं।
जब से मनुष्य ने पहला कदम बढ़ाया तब से पैदल घुमने की कथा का आरम्भ होता हैं।मानव समाज में कई समूह तो ऐसे हैं जो एक जगह बसते ही नही घुमते ही रहना उनकी जिन्दगी हैं।मनुष्य मूलत:थलचर हैं पर पानी में तैरना वह सीख लेता है। तकनीक का विस्तार कर हम आकाश में आवागमन के कई साधनों के बल पर हवा में भी घुमक्कड़ी ,भले
ही हम साधारण मनुष्य भी क्यों न हों, फिर भी कर सकते है।इस तरह आधुनिक काल का मनुष्य थलचर,नभचर और जलचर तीनों श्रेणियों के प्राणियों की तरह धुमक्कड़ी का आनन्द उठाने की हैसियत अपने ज्ञान,विज्ञान और तकनीक के बल पर पा गया हैं।
धरती के घनधोर दुर्गम स्थल तो एक तरह से पैदल घुमने के लिये सुरक्षित रखें हैं।मन का संकल्प और पैरों की ताकत ही मनुष्य को दुर्गम स्थलों से प्रत्यक्ष साक्षात्कार करवाने का अवसर और अनुभव सुलभ करवाती हैं।शायद इस धरती पर मनुष्य ही ऐसा प्राणी हैं जो भोजन नहीं मानसिक आनन्द के लिये घुमक्कड़ी को अपनाता हैं।घुमने को जीवन का ध्येय बनाने का सीधा साधा अर्थ हैं समूची धरती को अपना घर मानना।इसमें घर खरीदने,बनाने या लौटकर घर आने से मुक्ति हैं।दुनिया भर में हर जगह ऐसे लोग हैं जिनका अपना खुद का घुमक्कड़ी का दर्शन होता हैं।कुछ लोग आजीवन घुमक्कड़ी करते हैं।कुछ लोग पारिवारिक दायित्व से मुक्त होकर घुमक्कड़ी का दर्शन अपनाते हैं।जगत के विराट स्वरूप से प्रत्यक्ष साक्षात्कार करने के लिये घुमक्कड़ी का रास्ता चुनते हैं।वैसे तो जन्म से मृत्यु तक की यात्रा भी घुमक्कड़ी हैं।पर जीवन की घुमक्कड़ी में आजीवन घुमक्कड़ी का आनन्द ही अनन्त हैं।
घुमने की शुरुआत तरूणावस्था में हो जाय तो घुमक्कड़ी का रोमांच बढ़ जाता हैं।महात्मा गांधी के सहयोगी काका साहेब कालेलकर का कहना था कि सारे दुर्गम स्थानों को युवा अवस्था में ही घुम लेना चाहिये।जब तन कमजोर होता हैं तो घुमक्कड़ी का मन होने पर भी तन की कमजोरी घुमने फिरने पर दुविधाओं को मन में जन्म देती हैं।जीवन का सत्य भी यहीं हैं कि युवा अवस्था में मनुष्य का मन हर चुनौती के लिये तैयार होता है या चुनौती को अवसर मानता हैं।तरूणावस्था एक तरह से वरूणावस्था ही है तूफान की तरह वेगवान और कभी भी कहीं भी गतिशील होने को तत्पर।युवा मन और तन जीवन का सबसे ऊर्जावान कालखण्ड़ है जिसमें जिन्दगी का जोड़ बाकी गुणा भाग अजन्मा होता हैं।इसी से शायद जोश में होश खोने जैसी बातों का जन्म हम सबके लोक जीवन में आया ।
मानव की जिज्ञासा ने घुमने फिरने को जी भरके पाला पोसा हैं।बहुत पहले के कालखण्ड़ से घुमने फिरने वाले को ज्ञानी और अनुभवी समझा जाता रहा हैं।हमारी इस धरती के चप्पे चप्पे में फैली विविधतायें मनुष्य को धुमक्कड़ बनने का हर काल में आमंत्रण देती रहती हैं।
आज की साधनों की अतिवाली जिन्दगी में बहुत कम लोग तन और मन के साधन के बल पर घुमक्कड़ी की हिम्मत जुटा पाते हैं।आज हम सबका मानस साधन सम्पन्नता वाले पर्यटन की ओर ज्यादा झुकाहुआ रहता हैं। कहां रहेंगे?कहां और क्या खायेंगे?कैसे जायेंगे?जैसे सवाल प्राथमिक चिन्ता हो जाते हैं और घुमक्कड़ी का प्राकृतिक आनन्द गौण हो जाता हैं।हमारी धरती हमारे जीवन की रखवाली है।धरती पर जीवन की सारी अनुकूलताये उपलब्ध होने से ही धरती के हर हिस्से में मानव सभ्यता का विस्तार हुआ।पर आज हम व्यवस्था की अनुकूलता के आदि होते जा रहे हैं।जिसका प्रभाव हमारे मन और तन दोनों पर बहुत गहरे से हुआ हैं।
जीवन एक यात्रा हैं।जीवन एक अनुभव हैं।जीवन एक खुली चुनौती हैं।जीवन हवा हैं,पानी हैं,मिट्टी है,वनस्पति हैं,जैव विविधता का अनोखा विस्तार हैं,जिसमें हर जीवन के लिये जीवन्त बने रहने की भरपूर गुंजाइश हैं।हमने हमारी जरूरतों को पूरा करने के लिये जो जो इंतजाम रहने,सोने,खाने और जीने के लिये जुटाये हुए हैं।हममें से अधिकांश उन सबके इतने अधिक आदि हो गये हैं की तन और मन का साधन ही गौण हो गया।
आज के काल खण्ड में हमारे सोच में विकास,विस्तार और बदलाव का एकमात्र अर्थ व्यवस्थागत संसाधनों की अंतहीन जकड़बन्दी होता जा रहा हैं।आज हममें से किसी के पास यदि सायकल,मोटर सायकल या स्कूटर,कार या जीप,बस या रेल की सुविधा उपलब्ध नहो तो हम अपने पास कोई साधन उपलब्ध न होने की उदधोषणा कर कहीं भी आने जाने में अपनी असमर्थता व्यक्त करने में लजाते नहीं है,और सब इस तर्क को सहर्ष स्वीकार भी कर लेते हैं।यदि आज कोई अपने पैरों की ताकत से जीना चाहें तो लोग उसे साधन हीन मनुष्य मान कर दया का पात्र समझने लगते है।
भूदान का विचार लेकर सारे देश में सतत एक दशक से भी ज्यादा समय तक
पदयात्रा करने वाले संत विनोबा ने आदिशंकराचार्य के बारे में लिखा हैं कि शंकराचार्य दो बार कुल भारत भर में घुमे।३२साल की उम्र तक उन्होंने लगातार काम किया।ग्रंथ लिखे,चर्चा की,समाज की सेवा की और सर्वत्र संचार किया।भारत के एक कोने में,केरल में जन्म हुआ और हिमालय में समाधि ली और अनुभव किया कि अपनी मातृभूमि में ही हूं।उनके खाने के लिये आधार क्या था?झोली।कहते थे-“भिक्षा मांगकर खाओ,क्षुधा को व्याधि समझो और स्वादिष्ट अन्न की आशा मत रखो।जो सहज प्राप्त होगा,उसमें संतोष,समाधान मानो।”यही था शंकराचार्य का जीवनाधार!और यहीं उस तन और मन की भी असली ताकत है जिसके बल पर वह जीवन के प्रवाह को घुमक्कड़ी का आनन्द बना देता हैं।