कबिले में शादी ब्याह के रश्मे रिवाज

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हमारे अहीर कबिले में शादी ब्याह हमारे पुरखों की रीति रिवाज संस्कृति के अनुसार आज कल हो रहें बियाह से बिल्कुल भिन्न है, हालांकि फिल्म और सिरियल देख कर नकलची लोग इसी को अपना लिए हैं और अपना रहें हैं जो कहीं से भी उचित नहीं है और ना ही ये हमारे कुनबे समाज से मेल खाती है।

हमारे यहां बियाह से संबंधित सारी जिम्मेदारी अहीर कबिले के सरदार और अहीर समाज की होती थी, उनलोगो के द्वारा ही बताया जाता था फंला गांव में फंला जी का पोता/नाती है तत्पश्चात समय तारिक बता कर उनके घर देखा देखी करते थे। मुझे याद है कि जब मैं छोटा था तो ऐसे ही एक घर गया। दादा जी और चाचा जी की बात गौर से सुन रहा था।जिस दालान में बैठा था उसके सामने बनें खटाल(भैस,बैल) रखने की जगह में खूंटा गिन रहे थे और पास में बड़े बड़े कोठरी देख अंदाजा लगा रहे थे कि कितना अनाज होगा और कितना बैल, भैंस?

यहीं आंकलन कर शादी ब्याह होता था कि बेटी भूखी तो नहीं रहेगी दो टाइम खाना तो मिल जाएगा न?यह बहुत ही बेहतरीन तरीके का आंकलन था और लाजबाव भी।एक विश्वास था और इसी पर निर्भर भी थे लोग। सब आंकलन होने के बाद मात्र ग्यारह/बारह साल की उम्र में ही लड़की की शादी कर दी जाती थी। बारात तीन दिनों तक लड़की पक्ष के यहां ठहरती थी,गांव का इज्जत न खराब हो जाएं कोई कानाफूसी न करें की वह गांव खराब है वहां कभी शादी ब्याह मत कर इस बात को लोग अपने माथा (खोपड़ी,मगज, दिमाग) में घूंसा कर रखते थे ताकि संबंध बढ़िया रहें।पुरूष हो या महिला बारातियों की खातिरदारी में दिन रात एक कर खाना बनाने से लेकर झाड़ू पोंछा सब करती थी। इसके ठीक तीन/चार साल बाद रोसगद्दी यानी गौना होता था।बिना गौना के दूल्हे राजा का गांव के आसपास भी फटकना मुश्किल था।

रोसगद्दी (गौना) में फिर से परिवार ही नहीं दूर दूर का पूरा कुटुंम खानदान समाज के लोग पिता,दादा,परदादा के करीबी दोस्त सब मिलकर बारात की तरह फिर से लड़की पक्ष के यहां इकट्ठा होते थे। बारात में समधी मिलान होने के बाद हमारे कबिले में आज कि तरह दुल्हन के पूरे हीत नातेदार समाज के सामने जिस्म की नुमाइश नहीं होती थी। इज्जत आबरू रिती रिवाज संस्कृति का बहुत लिहाज था। दुल्हे के बड़े भाई (भैंसूर,जेठ जी) जो दूर के ही रिस्ते का क्यों न हो दुल्हन को पांच साड़ियां ओढ़ाने के बाद कबिले का पारंपरिक सफेद सफा जिसमें (सफेद शाल,गमछा या कोई भी सफेद अंगवस्त्र/कपड़ा) दुल्हन के माथा (सिर) से नाभी तक घूंघट ओढ़ा कर यह प्रदर्शित करते हुए आभार प्रकट करते थे कि अब आप ही घर के और हमारे कुल समाज के सर्वो सर्वा हो इस घर के साथ साथ कुल वंश/समाज कि जिम्मेदारी आपके उपर है, आपके आगमन का हमारे गाम समाज के लोग खटोला, डोली कहारों के साथ पलक बिछाएं खड़े हैं।

वहीं दूसरी ओर दूल्हे के फुफा जी का रूदन और रूठना मनाने का तमाशा देर रात से विदाई तक चलता था। फुफा अब ससुराल में पुराना दामाद हो चुकें थे तो सब इनसे किनारा हो रहें थे।इनका काम सिर्फ और सिर्फ कमी (नुख्स) निकालना होता था। जैसे सब्जी में नमक कम है, मिठाई में चीनी कम है, दहीं में छाली नहीं है,ये होना चाहिए वो रहना चाहिए वगैरह-वगैरह।
अपने साला सब से घिरे इनको कभी दलान में कभी बथान कभी जलमासा में लेजाकर मान मनुहार किया जाता था ताकि और ज्यादा न बमक(बिगड़, गुस्सा) हो जाएं। उसमें कुछ साला ऐसा भी होते थें जो फुफा जी की धोती खोल देते थे तो कुछ साले उनको बांस से बने मंडप में बैठा देते थे और वहां लोक गीत में गारी (गाली) गाती महिलाओं को फुफा जी का नाम बता कर खूब गाली सुनवाते थे।ये हंसी ठिठोली पूरे रात चलता रहता था। एक वो दिन था और एक आज का जमाना है, कितना बदल गया इंसान जिसको अपने बहन बेटी का परेख नहीं है 😭