मेरे शहर की पहचान है या नहीं, इस पर तो विद्वानों में मतभेद हैं, लेकिन इस पर सभी एकमत हैं कि फलां सडक़ की पहचान तो फलां गड्ढे ही हैं। यदि किसी का अपहरण किया जाए और उसकी आंख पर पट्टी बंधी हो तो भी वह सिर्फ सडक़ के दचकों की वजह से बता सकता है कि इस समय किस राह से गुजर रहे हैं। इसलिए मेरे शहर में अपहरण कम, हत्याएं ज्यादा होती हैं। अपराध भी इसलिए कम होते हैं कि सडक़ के गड्ढों का पता नहीं होता सुपारी लेने वालों को, और गड्ढों की वजह से पकड़े जाते हैं।
नगर निगम तो पूरी कोशिश करता है कि गड्ढे भर जाएं, ताकि ये गड्ढे फिर मुंह खोलें और फिर इनमें पैसा भर दिया जाए। यह रिवाज अनंतकाल से चला आ रहा है। यहां का पुराना बाशिंदा कभी गड्ढे की वजह से सडक़ पर गिरता नजर नहीं आता है, क्योंकि सभी को मुंहजबानी याद है कि गांधी मार्ग में कितने गड्ढे हैं और टैगोर रोड पर कितने गड्ढे हैं।
कहते हैं आयातित अपराधी यहां अपराध का डबल मेहनताना मांगते हैं कि सीमा पर सैनिक तो फिर भी बच सकता है, यहां सडक़ पर इन गड्ढों से बचना मुश्किल है।
पुलिस का भी डर नहीं इन्हें, जितना सडक़ के गड्ढों से घबराते हैं। पुलिस भी ऐसे अपराधियों को पकडऩे में इसलिए फुर्ती नहीं दिखाती है कि जानते हैं कब तक बकरे की अम्मा खैर मनाएगी, एक ना एक गड्ढे में तो गिरना ही है। इसीलिए पुलिस सडक़ को कम और गड्ढों को ज्यादा तलाशती चलती है कि ज्यादातर अपराधी तो इन्हीं गड्ढों में पड़े मिले हैं। अपराधी जितना पुलिस का खौफ नहीं खाते हैं, उससे ज्यादा यहां के गड्ढों का रहता है।
शहरी नागरिक कभी इन गड्ढों में नहीं गिरता। उसे नींद या मदहोशी में भी याद रहता है और बताता रहता है ‘संभल कर, चार फुट की दूरी पर दायीं तरफ दस बाय आठ का गड्ढा है, उधर मोड़ के आगे रोटरी के ठीक पहले चार बाय तीन का गहरा गड्ढा है।’ ये गड्ढे तब से हैं, जब से यह शहर, गांव था। कई बार सडक़ें बनीं, बिगड़ीं मगर इन गड्ढों का बाल भी बांका नहीं हो सका। शहर के ऐतिहासिक भवन ढह गए और उनकी जगह मॉल बन गए, लेकिन ये गड्ढे, पहले भी गड्ढे थे और आज भी उसी स्वरूप में गड्ढे तने हुए हैं।
कहते हैं, जब सडक़ पर ठेकेदार और इंजीनियर मिलकर कुछ बदलाव की कोशिश करते हैं तो भी यह याद और ध्यान रखा जाता है कि इन गड्ढों को कोई नुक्सान नहीं पहुंचे। चमचमाती सडक़ के बीच ये गड्ढे चांद-सितारों की तरह कायम रहते हैं। होती है गलती आदमी से ही, अगर कुछ नासमझ यह गड्ढा बूर भी देते हैं तो ये स्वावलंबी गड्ढे फिर मुंह खोल लेते हैं। इन्हें कुछ भी नहीं व्यापता है। इसीलिए इन्हें नागरिकों की समझबूझ पर छोड़ दिया जाता है।
सडक़ पर चलते देख यह पता लग जाता है कि परदेसी है, क्योंकि यहां का रहने वाला झटके नहीं खाता और हर गड्ढे को इस तरह पार कर जाता है, जैसे आरटीओ में लायसेंस बनवाते वक्त सावधानी से टेस्ट दिया जाता है। कहीं कोई गफलत नहीं, संशय नहीं। इन्हीं सडक़ीय गड्ढों की वजह से जचगी में यहां समय नहीं लगता है। अस्पताल से पहले ही डिलीवर हो जाता है। लोग निकलते अस्पताल के लिए हैं और आधे रास्ते से ही बच्चा लिए घर लौट आते हैं कि अब क्या करें वहां जा कर। इस तरह कम खर्च वाले नसीब पर लोगों का यकीन है।
बीमार भी जिद करता है कि घर में ही रहने दो, जानता है दो-चार झटके रास्ते में लग गए तो ना अस्पताल के रहेंगे और ना ही घर के। वैसे भी मेरे शहर में अगर हड्डियों के डॉक्टर ज्यादा हैं तो इन गड्ढों की वजह से। कोई खाली नहीं बैठता है। इतनी सडक़ें और इतने गड्ढे हैं कि डॉक्टरों को फुरसत ही नहीं है। ये भी ज्यादातर बाहर के लोग ही होते हैं, जो आते हैं खरीदारी या शॉपिंग के लिए और ले जाते हैं टूटी टांग या हाथ या शरीर का कोई और अंग।
यह विज्ञान अभी तक, और जगह विकसित नहीं हुआ है कि गड्ढों को बचा कर किस तरह रखा जाए। इस मामले में हम आत्मनिर्भर हैं। आप लाख कोशिश कर लें, धरना-आंदोलन कर दें, भाजपा का झंडा लगा दें उस गड्ढे में, मगर जो गड्ढा है, हमेशा गड्ढा ही रहता है, सपाट सडक़ का हिस्सा नहीं होता है।
एक बच्चा बीस साल पहले घर से गायब हो गया था। वैसे ही घूमते-भटकते इस शहर में आ गया तो पहले गड्ढे में गिरते ही उसके ज्ञान-चक्षु खुल गए और वह सीधा अपने घर पहुंच गया और मां-मां चिल्लाने लगा, उन गड्ढों की मदद से, और कहानी का सुखद अंत हो गया। बाद में उस परिवार ने उन गड्ढों पर फूल चढ़ाए और अगरबत्ती भी लगाई। पास ही गड्ढेश्वर का मंदिर भी बन गया। लोग मन्नत मानने लगे। अब ऐसे में किसकी हिम्मत है कि गड्ढे को भरने की हिमाकत भी करे!
प्याज उर्फ कांदे की वजह से गई सरकार तो फिर भी वापसी कर लेती है, लेकिन एक बार गड्ढे की वजह से डूबी सरकार फिर नहीं उभरती! यकीन न आए तो दिग्विजयसिंह से दरयाफ्त कर लें। उनकी सरकार इसलिए नहीं गई थी… कि गड्ढों में सडक़ थी, बल्कि गड्ढों की गहराई नापने बैठ गए थे। गड्ढों ने अपने इस अपमान का ऐसा बदला लिया … कि आज तक उठ नहीं पाए, नर्मदा यात्रा के बावजूद। इसीलिए कहते हैं सरकार तो आनी-जानी है, गड्ढे यहीं थे… और यहीं रहेंगे!
*प्रकाश पुरोहित*