( अमृता राय )
मैंने जीवन में ऐसा रुदन, क्रंदन और बेबसी नहीं देखी। मरीज़ इलाज के लिए तड़प रहे हैं और परिजन उनका हाल जानने के लिए। आप पैसा फूंक दीजिए। आप रोइए, गिड़गिड़ाइए, चाहें तो सिर पीटिए पर जो जैसे चल रहा है। बस चल रहा है।
आलम ये है कि बड़े बड़े अस्पतालों में कहीं स्टोर तो कहीं गोदाम तो कहीं गैलरी पैसेज में मरीज़ भरे पड़े हैं। किसी तरह एक बार डॉक्टर देख लें तो शायद जान बच जाए। वरना जान तो घर से निकलते हुए आधी पहले ही सूख चुकी होती है। हज़ारों प्राइवेट अस्पताल हैं फिर भी इंतज़ार कई कई दिनों का चल रहा है।
कुछ लोग घरों में ही ऑक्सीजन का इंतज़ाम करने लगे हैं। कल ही एक परिचित ने कहा कि उन्होंने कोई ऑक्सीजन मशीन ख़रीदी है। पता नहीं कब काम पड़ जाए। कुछ और भी हैं जो जीने के इस इंतज़ाम को पहले से जुगाड़ लेना चाहते हैं। एमपी से आनेवाले फ़ोन कॉल तो कभी बंद ही नहीं हो रहे। देर रात रात तक लोग अपने परिजनों को अस्पताल में एडमिशन के लिए गिड़गिड़ा रहे हैं। और ऑक्सीजन की गाड़ी का सौभाग्य देखिए कि उसके आने पर दीपावली हो जा रही है।
ख़ैर..अब डॉक्टर्स का रुदन- पूरे सिर से पैर तक पजामे में क़ैद डॉक्टर पहले अपनी जान बचाएं या आपकी.. इसी भय में जी रहे हैं। एक साल से इस हाल में चलते रहे लेकिन अचानक दूसरे कोरोना विस्फोट ने उनको थका दिया है। मरीज़ ज़्यादा और डॉक्टर कम हैं। अटेंडेंट भी उसी अनुपात में और कम। छुट्टी के दिन भी परिजन चैन से रहने नहीं देते। एक एक डॉक्टर पर तीस-तीस मरीज़ों की ज़िम्मेदारी है। किसको क्या बोलें। जब जिसका दबाव काम आ जाए तब उससे सहानुभूतिपूर्वक बात कर लेते हैं। निजी दबाव के अलावा मैनेजमेंट का दबाव, सरकार का दबाव, जैक वालों का दबाव – क्या क्या झेलना पड़ता है .. बीते बीस दिनों में तो मैं गवाह हूँ कि कम से कम तीन डॉक्टर कोरोना के गंभीर चपेट में आ चुके हैं।
इन हालातों में किसे क्या बोलें। देश आत्मनिर्भर हो गया या आत्महत्या को मजबूर … कहने से डर लगता है।
सोचिए कि आख़िर ये हालात क्यों बने? चाँद, सूरज की सैर का सपना दिखानेवालों ने नर्क के द्वार पर लाकर खड़ा कर दिया पूरी इंसानियत को।