देश में कोरोना की दूसरी लहर ने मौत का तांडव मचा रखा है। लाखों की संख्या में संक्रमण के नए मामले और हजारों की तादाद में हो रहीं मौतें अब अपवाद नहीं, बल्कि रोज-रोज का अवसाद बन गईं हैं। हालात ये हैं कि अस्पतालों में मरीजों के लिए बिस्तर नहीं, जांच के मुकम्मल इंतजाम नहीं, इंजेक्शन नहीं, दवाई नहीं, ऑक्सीजन नहीं, वेंटिलेटर नहीं और जब मौत आ जाए तो श्मशान और कब्रिस्तान में जगह भी नहीं। कोरोना का भयानक विस्फोट पता नहीं हमें अभी और क्या-क्या नजारे दिखाएगा। और यह सब कुछ तब है जब हमने कोरोना से लड़ने के लिए दुनिया में मौजूद सबसे बेहतरीन संसाधन जुटाए हैं।
लेकिन केन्द्र-राज्यों में समन्वय की कमी और आमजन की लापरवाही से ये संसाधन भी कोरोना के सामने बौने साबित हो रहे हैं। हर दिन बढ़ता मौत का आंकड़ा तो केवल इसकी एक बानगी है। बड़ी चिंता इस बात की है कि तमाम सकारात्मक बदलावों के बावजूद हमारा हेल्थ सिस्टम फिर से चरमराता दिख रहा है और सुविधाओं और व्यवस्थाओं के मोर्चे पर हम वहीं खड़े दिख रहे हैं, जहां एक साल पहले थे।
बिना किसी लाग-लपेट के कहा जाए, तो यह हमारी पिछले महीने तक जारी रही उस ढिलाई का ही नतीजा है, जिसने संक्रमण में आ रही लगातार गिरावट के बीच हमें इतना बेपरवाह बना दिया कि हमने कोरोना का दम उखड़ने से पहले ही उसे बेदम मान लिया।
हमारी यही सोच आज इतना बड़ा संकट बन गई है कि उसमें भविष्य की तस्वीर भी गुम हो गई है। प्रतिदिन दो लाख से ज्यादा लोगों को संक्रमित कर रही कोरोना की दूसरी लहर के रास्ते में आगे कौन-कौन सी कठिनाइयां हैं, इसका ठीक-ठीक अंदाजा लगाना भी मुश्किल हो रहा है। आपातकाल शायद इसी को कहते हैं और शायद इसीलिए देश भी अब सरकार से मेडिकल इमरजेंसी घोषित करने की गुहार लगा रहा है।
याद कीजिए, केवल एक पखवाड़े पहले तक हम किस तरह कोरोना की दूसरी लहर को राजनीति का खेल बता कर खारिज करने में जुटे थे। अचानक मामले बढ़ने के बाद राज्यों की ओर से आ रहीं ऑक्सीजन, वेंटिलेंटर और वैक्सीनेशन की शिकायतों को साथ बैठकर सुलझाने के बजाय सियासी जामा पहनाया जा रहा था।
इस दौरान राज्यों की ओर से भी केन्द्र पर राजनीतिक भेदभाव की तोहमत लगाने में कोई कसर नहीं छोड़ी गई। नतीजा क्या निकला? हम आपस में लड़ते रहे और कोरोना अपने कम-ज्यादा असर के फर्क को इस तरह मिटाता गया कि आज देश के एक-दो नहीं, बल्कि 16 राज्यों में हाहाकार मचा हुआ है।
एक विडंबना और देखिए। कोरोना के इतने कोहराम के बावजूद शासन-प्रशासन भी कोई सबक सीखने को तैयार नहीं दिख रहा है। चुनावी रैलियों से लेकर हरिद्वार में चल रहे कुंभ में कोरोना गाइडलाइंस की खुलेआम धज्जियां उड़ती दिखीं। आम आदमी को सुबह-शाम सोशल डिस्टेंसिंग का पाठ पढ़ा रहा सिस्टम इन आयोजनों में जुटे हजारों-लाखों के जमावड़े में मास्क पहनने से लेकर शारीरिक दूरी का कितना पालन कर रहा है, यह देश ही नहीं, पूरी दुनिया देख रही है। हकीकत से मुंह चुराते इन आयोजनों से हम देश-दुनिया को क्या संदेश दे रहे हैं?
पिछले साल तक हम कोरोना की वैश्विक लड़ाई का नेतृत्व कर रहे थे।
हम केवल गरीब देशों की ही उम्मीदों का केन्द्र नहीं थे, विकसित देशों के लिए भी मिसाल साबित हो रहे थे। लेकिन हमारी सोच के इस पिछड़ेपन ने हमें दूसरे देशों के मुकाबले में आज हमें कहां लाकर खड़ा कर दिया है? दुनिया के कई देश आज कोरोना पर काबू पाने के बाद अपने-अपने वैक्सीनेशन कार्यक्रम को रफ्तार देने में जुटे हैं। 97 दिनों का दुनिया का सबसे लंबा लॉकडाउन झेलने के बाद ब्रिटेन फिर से गुलजार होने लगा है। चार जनवरी को जब ब्रिटेन में लॉकडाउन लगा, तो शासन की योजनाओं में हर बात स्पष्ट थी। यहां तक कि कौन सा सेक्टर कब तक बंद रहेगा, कब खुलेगा इस पर भी कोई भ्रम नहीं था।
इस वजह से कोई अफरातफरी नहीं मची और लॉकडाउन के समय रोजाना आ रहे 55 हजार नए मामले अब गिरकर चार हजार से भी नीचे आ गए हैं। इस सफलता ने ब्रिटेन की सरकार को अपना पूरा ध्यान वैक्सीनेशन कार्यक्रम पर केन्द्रित करने का अवसर दिया है, जिसके सकारात्मक परिणाम वहां की जनता को मिल रहे हैं। ब्रिटेन में दुनिया में सबसे पहले वैक्सीनेशन कार्यक्रम शुरू हुआ और अब तक वो अपनी आबादी के 48 फीसद हिस्से का टीकाकरण कर चुका है।
उसका लक्ष्य जुलाई तक अपनी वयस्क आबादी के शत-प्रतिशत वैक्सीनेशन का है। यही हाल अमेरिका का है। बेशक वैक्सीनेशन के आंकड़े में अमेरिका अभी ब्रिटेन से पीछे है, लेकिन पूरे देश को टीकाकरण के दायरे में लाने के मामले में वो ब्रिटेन को पछाड़ने की तैयारी में दिख रहा है। अभी तक अमेरिका की कुल आबादी के करीब 29 फीसद हिस्से यानी लगभग एक-तिहाई नागरिकों को वैक्सीन लग चुकी है और ब्रिटेन के जुलाई तक शत-प्रतिशत लक्ष्य के मुकाबले अमेरिका इसे मई में ही हासिल कर लेना चाहता है। लेकिन हम दुनिया भर में वैक्सीन के सबसे बड़े निर्माता होने के बाद भी इस रेस में पिछड़ते दिख रहे हैं।
टीकाकरण के तीन महीने और टीका उत्सव के बावजूद हमारे यहां वैक्सीनेशन की रफ्तार अभी भी काफी धीमी है और रोजाना औसतन 30 लाख से कुछ ज्यादा वैक्सीन ही लगाई जा रही है। इसके कारण अब तक केवल सात फीसद आबादी का टीकाकरण हो पाया है। इस रफ्तार से सरकार को देश के अंतिम व्यक्ति तक वैक्सीन पहुंचाने में अब 415 दिन और यानी एक साल से भी ज्यादा समय लग सकता है।
चिंता का एक विषय टीके की बड़े पैमाने पर हो रही बर्बादी भी है। कई राज्यों में अभी भी इसकी दर 15-16 फीसद के बीच बनी हुई है। ऐसे राज्यों को केरल से सबक सीखना चाहिए, जहां वैक्सीन बर्बादी की दर शून्य है यानी केरल अपने खाते में आ रही वैक्सीन की एक-एक डोज का सदुपयोग कर रहा है।
इस सबके पीछे यह तर्क भी गले नहीं उतर रहा कि जब हम टीकाकरण के लक्ष्य से काफी पीछे चल रहे हैं और टीका केन्द्रों पर पर्याप्त संख्या में लोगों के नहीं पहुंचने से लाखों टीके बर्बाद हो रहे हैं, तब भी हम टीकाकरण के लिए आयु की बंदिश को इतना महत्व क्यों दे रहे हैं? क्यों नहीं टीकाकरण को 45 वर्ष से अधिक उम्र के लोगों तक सीमित रखने के बजाय इसे सभी आयु वर्ग के लिए खोल दिया जाता। कई राज्य इसकी मांग भी उठा चुके हैं। अगर टीकों की कम उपलब्धता इसकी वजह है, तो उत्पादकता को बढाने के लिए कदम उठाने चाहिए। अगर टीकों की पर्याप्त संख्या में उपलब्धता है, तो पल्स पोलियो अभियान की तरह घर-घर जाकर टीके लगाने जैसा अभियान शुरू किया जा सकता है।
कहने का आशय यही है कि अपनी तमाम कोशिशों के बावजूद कोरोना से लड़ाई में हम वैश्विक स्तर तो दूर, अपने खुद के बनाए लक्ष्य से पीछे चल रहे हैं। हर गुजरते दिन के साथ नए संक्रमण और मौतों की संख्या में बढ़ोतरी साफ इशारा कर रही है कि महामारी से निपटने के लिए हमारी अब की कोशिशें भले ही सही रास्ते पर हों, लेकिन ये पर्याप्त नहीं है। इसे और धार दिए जाने की जरूरत है और इसके लिए देश में अब मेडिकल इमरजेंसी लागू करना जरूरी हो गया है।
उपेंद्र रॉय