* दिनेश निगम ‘त्यागी’
मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान एवं प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ के बीच क्या कोई अंडर स्टेंडिंग बन गई है? क्या दोनों आपस में समन्वय बनाकर काम कर रहे हैं? क्या इसकी वजह शिवराज द्वारा कमलनाथ की कोई कमजोरी पकड़ लेना है? ऐसे सवाल भाजपा के अंदर भले न उठ रहे हों लेकिन कांग्रेस के अंदर इसे लेकर खदबदाहट है। वजह कमलनाथ-शिवराज के बीच लगातार सौजन्य मुलाकातों का होना भी है। विधायक दल में बिना सलाह-मशविरा किए कमलनाथ ने जिस तरह विधानसभा के सत्र समय से पहले स्थगित कराए, इससे ऐसी चर्चाओं को ज्यादा बल मिला। शीतकालीन सत्र में ऐसा हुआ तो कांग्रेस विधायकों ने निर्णय पर सवाल उठाए। अब विधानसभा का बजट सत्र भी दस दिन पहले अनिश्चितकाल के लिए स्थगित हो गया। इस पर डा. गोविंद सिंह जैसे वरिष्ठ एवं जीतू पटवारी जैसे युवा विधायक ने सवाल खड़ा किया। कांग्रेस के एक बड़े वर्ग को कमलनाथ का यह रवैया रास नहीं आ रहा। विरोध के स्वर उभरे तो सत्तापक्ष को तंज कसने का अवसर मिल गया। नरोत्तम मिश्रा ने कहा कि कांग्रेस विधायकों को अपने नेता पर ही भरोसा नहीं है। सवाल यह है कि क्या कमलनाथ को विधायक दल को भरोसे में लेकर निर्णय नहीं लेना चाहिए? इतने धक्के खाने के बाद कांग्रेस क्या इसी तरह मजबूत होगी?
समर्थकों का टूटता धैर्य, खाली हाथ सिंधिया….
ज्योतिरादित्य सिंधिया को कांग्रेस छोड़े एक साल गुजर गए। भाजपा को सत्ता में लाने वाले सिंधिया प्रारंभ में अपने समर्थकों को मंत्री बनवाने में कामयाब रहे। धैर्य उन पूर्व मंत्रियों का टूट रहा है जो कांगे्रस सरकार में ताकतवर थे। सिंधिया के साथ कांग्रेस छोड़कर भाजपा में आए और उप चुनाव हार गए। इमरती देवी, गिर्राज दंडोतिया एवं एंदल सिंह कंसाना को उम्मीद थी कि सरकार में उन्हें एडजस्ट किया जाएगा। मंत्री पद चला गया लेकिन मंत्री पद का दर्जा मिल जाएगा। राजनीतिक रसूख बरकरार रहेगा, लेकिन अब तक यह मंशा पूरी नहीं हुई। सिंधिया को अपने इन समर्थकों की चिंता है। वे इनके पुनर्वास के लिए लगातार प्रयास कर रहे हैं। सरकार का एक साल पूरा होने पर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने सिंधिया को लंच दिया, लेकिन यहां भी वे खाली हाथ रहे। शिवराज और भाजपा नेतृत्व के साथ उनकी कोई चर्चा नहीं हो सकी। हालात यह है कि सिंधिया के पास भाजपा नेतृत्व और मुख्यमंत्री की तारीफ करने के सिवाय कोई अन्य चारा नहीं बचा। बावजूद इसके उनकी कोई नहीं सुन रहा और कांग्रेस लगातार ताने मार रही है। प्रदेश भाजपा अध्यक्ष वीडी शर्मा ने यह कहकर उम्मीद की किरण जरूर जगाई है कि जल्द ही निगम-मंडलों में नियुक्तियां की जाएंगी।
बलि का बकरा तो नहीं बन गए मानक….
क्या यह कल्पना संभव है कि महात्मा गांधी के नाम पर राजनीति करने वाली कांग्रेस का कोई नेता गांधी जी के हत्यारे नाथूराम गोडसे के भक्त को पार्टी में लेने का विरोध करे और उसे पार्टी से निकाल दिया जाए, नहीं ना, लेकिन ऐसा हो गया। कांग्रेस ने ग्वालियर के उस बाबूलाल चौरसिया को पार्टी में लिया, जिसने गोडसे की मूर्ति स्थापित कराई और पूजा कर उसे देशभक्त बताया। मजेदार यह कि कमलनाथ ने मुख्यमंत्री रहते चौरसिया के खिलाफ प्रकरण दर्ज कर कार्रवाई के निर्देश दिए थे। अब कमलनाथ ने ही उसे कांग्रेस में ज्वाइन करा लिया। इस पर कांग्रेस के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष अरुण यादव, विधायक लक्ष्मण सिंह एवं वरिष्ठ नेता मानक अग्रवाल सहित कई नेताओं ने अपना विरोध दर्ज कराया। अरुण, लक्ष्मण और मानक का विरोध तीखा था, लेकिन कार्रवाई सिर्फ मानक पर हुई। मानक के नेताओं से मतभेद हो सकते हैं लेकिन उनकी कांग्रेस के प्रति आस्था पर कोई सवाल नहीं खड़े कर सकता। इसलिए मानक पर कार्रवाई से कई सवाल उठ खड़े हुए हैं। जैसे, गोडसे भक्त के मामले में सिर्फ मानक पर कार्रवाई क्यों? कार्रवाई कर क्या मैसेज देना चाहते हैं कमलनाथ? कार्रवाई के बाद गोडसे भक्त को पार्टी में लेने का विरोध करने वाले क्यों साध गए चुप्पी? क्या इस तरह मजबूत हो सकेगी कांग्रेस?
अति की इंतहा से अंत’ की ओर रामबाई….
विधानसभा चुनाव के बाद कांग्रेस सत्ता में आई तो पथरिया से जीतीं बसपा विधायक रामबाई का जलवा देखने लायक था। वे जो चाहतीं तत्कालीन मुख्यमंत्री कमलनाथ तत्काल करते। पथरिया जाना होता तो सरकारी हेलीकाप्टर मिल जाता। दिल्ली जातीं तो सूटकेस लेने के लिए मंत्री आगे-पीछे रहते। यह उनके जलवे की इंतहा थी। मंत्री न बन पाने की कसक उनके अंदर बाकी थी। लिहाजा, सरकार पलटने के खेल में वे भाजपा के साथ हो गर्इं। भाजपा सरकार बनने के बाद वे कहतीं कि उन्हें भाजपा के प्रमुख नेताओं ने मंत्री बनाने का आश्वासन दे रखा है। वे उम्मीद जतातीं कि ये अपना वादा पूरा करेंगे। मुझे मंत्री बनाएंगे। उप चुनावों में भाजपा की जीत के बाद रामबाई मंत्री तो नहीं बनी लेकिन उनके अति की इंतहा का अंत शुरू हो गया। पहले हत्या के आरोपी उनके पति विधानसभा के अंदर सीना तानकर घूमते थे। अब उनके ऊपर इनाम घोषित है। गिरफ्तारी के लिए गांव-गांव पोस्टर लग रहे हैं। अवैध निर्माण हटाएं जा रहे हैं और अफसरों पर चढ़ाई करने वाली रामबाई उनके सामने गिड़गिड़ाती दिख रही हैं। राम बाई के जलवे की हवा इससे भी निकल गई कि जिन भाजपा नेताओं से वे अपने नजदीकी संबंध बताती थीं, मुसीबत के दौर में उन नेताओं ने उनके फोन उठाना तक बंद कर दिए हैं।
क्या ‘यश’ के भी भागीदार होंगे कैलाश?….
पश्चिम बंगाल विधानसभा का चुनाव जहां भाजपा नेतृत्व की नाक का सवाल है, वहीं प्रदेश के भाजपा नेताओं के बीच प्रतिस्पर्द्धा का कारण भी। प्रदेश के कई नेताओं को बंगाल के विधानसभा चुनाव में जवाबदारी सौंपी गई है। सबसे प्रमुख हैं राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयर्गीय, जो पार्टी की ओर से दो साल से भी ज्यादा समय से पश्चिम बंगाल में डेरा डाले हुए हैं। वहां भाजपा का महौल बनाने में विजयवर्गीय की मुख्य भूमिका मानी जा रही है। केंद्रीय मंत्री पहलाद पटेल, प्रदेश सरकार के मंत्री नरोत्तम मिश्रा, विश्वास सारंग और अरविंद भदौरिया को भी मोर्चे में तैनात किया गया है। खास बात यह है कि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने एक पखवाड़े में ही ऐसा माहौल बना दिया है, मानो पश्चिम बंगाल में पार्टी के पक्ष में माहौल बनाने में मुख्य भूमिका उन्हीं की है। प्रदेश के सभी नेताओं की कोशिश है कि उनके जवाबदारी वाले क्षेत्रों में भाजपा को ज्यादा सफलता मिले। नतीजों के आधार पर इन नेताओं का पार्टी और सरकार में कद घट-बढ़ सकता है। कैलाश पर सबकी ज्यादा नजर है। यदि भाजपा हारी तो अपयश का ठीकरा उनके सिर फूटना तय है। सवाल है कि यदि भाजपा ने बाजी मारकर सरकार बना ली तब भी क्या विजयवर्गीय को ही इसका यश मिलेगा, या जीत का सेहरा हमेशा की तरह नरेंद्र मोदी एवं अमित शाह के सिर ही बंध जाएगा?