लेखक – आनंद शर्मा
मध्यप्रदेश इतना विस्तृत है कि इसके अलग भूभागों में अलग अलग भाषाएँ , बोलियाँ और भोजन की विविधताएँ विद्यमान हैं । आप ग्वालियर की ओर हैं तो बेड़ईं और तीखी सब्ज़ी के मज़े हैं , बुंदेलखंड में हैं तो गक्कड़-दाल का आनन्द है ,मालवा आ जायें तो दाल-बाफ़ले और लड्डू की दावत के बिना बात ना बनेगी । कई बार किसी एक क्षेत्र के रहवासी दूसरे क्षेत्र में जायें और व्यंजन की विविधता को परखने के शौक़ीन ना हों तो मेज़बान का दिल टूट जाता है । कटनी के रहने वाले मेरे बचपन के मित्र रवींद्र मसुरहा की शादी भोपाल में हुई है । हम सब कालेज में ही पढ़ा करते थे और बारात में भोपाल जाने का एक ग़ज़ब का उत्साह था ।
इस बारात की दो बातें मुझे आज भी याद हैं , पहली तो ये कि सूट-बूट में तैयारी के साथ हम बाराती जब भोपाल पहुँचे तो सारी तैयारी धरी रह गयीं क्योंकि भोपाल में ग़ज़ब की बारिश हो रही थी और सारे सूट-बूट इस बरसात में ऐसे धुले कि दूसरे दिन हम बरसाती जूते ख़रीदने दुकान की तलाश कर रहे थे । दूसरी ये कि कुँवर कलेवा में ससुराल वालों ने बड़े अरमान से दाल-बाफले परोसे थे और हम सबने पहली बार ऐसी गक्कड़( बाटी ) देखी थी जो फुसफुसी होकर शुद्ध घी में डूबी हमारी पत्तल में परोसी गई थी । हममें से किसी ने उसे हाथ ना लगाया , और वे बड़े हैरत से हमें देखते रहे । दाल बाफ़ले खाने का सलीका मुझे तब आया , जब पहली दफ़ा जब मेरी पोस्टिंग मालवा के उज्जैन जैसे इलाक़े में हुई ।
मैं उज्जैन का एस.डी.एम. नियुक्त हुआ तो प्रारंभिक मेलमुलाक़ात के बाद एक नेताजी ने जो विधायक भी थे मुझसे ऑफ़िस में कहा कि इस रविवार भोजन साथ करें ? मैंने यूँ ही कह दिया ठीक है देख लेंगे । रविवार तक मैं उनका अनुरोध और अपना वादा दोनों भूल चुका था । कुछ दिनों बाद एक परिचित सज्जन ने मुझसे कहा कि “फलाँ नेताजी आपसे बड़े नाराज़ हैं” । मुझे आश्चर्य हुआ मैंने पूछा , अभी तो मैंने काम भी शुरू नहीं किया है भला उनकी नाराज़ी का क्या कारण हो सकता है ? उन्होंने याद दिलाया कि आपने कहने के बाद भी उनका भोजन ग्रहण नहीं किया इसलिए वे नाराज़ हैं । मैंने कहा भाई खाने पर ना जाना क्या इतनी बड़ी बात है ? मेरे दोस्त कहने लगे साहब ये मालवा है यहाँ कोई ख़ाना खिलाने को कहे और आप न खाओ तो वो ये अपना अपमान समझता है ।
मैंने तुरंत फ़ोन पर नेताजी से माफ़ी माँगी और अगले रविवार उनके साथ दाल-बाफ़ले की दावत उड़ाई । दावत से जुड़ी एक और मज़ेदार घटना याद आ रही है । मैं रतलाम ज़िला पंचायत में सी.ई.ओ. होकर गया था । परिवार ग्वालियर में ही था और मैं अकेला रह रहा था । एक दिन हमारे संवर्ग के एक अधिकारी ने जो वहीं नगर निगम में कमिश्नर थे , मुझे रात्रि भोज के लिए आमंत्रित किया । अफ़सर जब किसी पोस्टिंग में अकेला रह रहा हो तो ऐसे न्योते का इन्तिजार करता ही रहता है । मैंने तुरन्त हाँ कर दी और रात को आठ बजे के आस पास उनके बँगले पर पहुँच गया ।
हम कुछ देर बैठे फिर उन्होंने चाय का पूछा , मैंने घड़ी देखी , साढ़े आठ बजना चाह रहे थे , मैंने कहा ठीक है पी लेंगे । कुछ देर में चाय बनी , हमने पी , फिर बैठे इधर उधर की बात होती रही । मैंने घड़ी देखी , रात के साढ़े दस बजने वाले थे , मुझे लगा यदि अब संकोच किया तो हो सकता है भूखा ही सोना पड़े क्योंकि इतनी रात तो खाने के होटल भी बंद हो गए होंगे । मैंने उनसे कहा “ लगता है आप भूल रहे हैं , आपने मुझे खाने पर बुलाया था । उन्होंने कहा नहीं नहीं भुला नहीं हूँ , बस बनवाते हैं , भिण्डी की सब्ज़ी खाएँगे ? मैंने कहा अब इस वक्त तो आप जो खिलाओ खा लेंगे । बहरहाल फिर हमने बढ़िया डिनर किया और मैं अपने इस भुलक्कड़ मित्र को शुभरात्रि कह अपने घर चल दिया ।