मुझे पत्रकार बनाने वाले मेरे अग्रज भैय्या वरिष्ठ पत्रकार कमल दीक्षितजी नहीं रहे… सचमुच मुझे भरोसा नहीं हो रहा…मेरे जैसे पत्रकार के लिए पत्रकारिता के दुरावस्था के इस दौर में वे एक ठौर थे…उम्मीद का सूरज थे…मेरा हाथ उन्होंने तब पकड़ा, जब भीतर एक अलग तरह के जुनून और पागलपन के साथ पत्रकारिता की निपट खाली स्लेट लिए भटक रहा था…वे मेरे लिए एक ऐसा लैंप पोस्ट (प्रकाश स्तम्भ) थे, जिसके नीचे बैठकर मैं वर्षों से अपने भीतर की पत्रकारिता को चमकता और पत्रकारीय पीड़ाओं को जलाता आ रहा था…वे मेरी बाह्य राजनीतिक-सामाजिक और धार्मिक आडम्बरों और पाखंडों के प्रति विरक्ति देखकर और इनके प्रति पत्रकारों की सूझ-समझ पर टिप्पणी सुनकर हमेशा यही कहते थे कि तुम गलत दुनिया में आ गए…
हालांकि विरक्त खुद भी रहे…पर वे मुझसे कहते, ये दुनिया तुम्हारे लिए नहीं है…फिर आसमान की ओर इशारा कर कहते कि, कुछ तो तुझमे चमत्कार है, जो तू ठाठ-बाट में रहता है…लेकिन यह मैं ही जानता हूं कि, मेरे भीतर जो चमत्कार है…वो उनका ही चमत्कार है…उन्होंने ही मूल्यों को समझने की दृष्टि दी…और मूल्यों के लिए मर-मिटने के संस्कार दिए…कि कुछ भी हो जाए भीतर की खुदी को जिंदा रखना है…नौकरियों और बनिया-बकालों को सिर पर नहीं, ठोकर में रखने का सलीका हमने उनसे ही सीखा… वे पत्रकारिता जगत के सहज-सरल बादशाह थे…ऐसे अवधूत थे जिनकी सादगी के सामने सत्ताधीशों और मठाधीशों को नत मस्तक होते हमने देखा है…
80 साल की बुर्जुआ अवस्था में भी नये विद्यार्थी की तरह उनके भीतर जिज्ञासाएं कुलांचे मारती थीं…पर हर विषय पर उनकी अपनी मीमांसा रहती थी…वे बेहद पढ़ाकू थे…पर उनकी निगाहों को पढ़ने पर लगता कि वे बुद्ध-महावीर की तरह कुछ तलाश रहे हैं…और जैसे कुछ न पाने की टीस से भीतर ही भीतर जूझ रहे हैं…शायद यही वजह रही कि इतनी घातक बीमारी होने के बावजूद उनके ललाट पर सूरज सी दमक और औंठों पर फूलों सी मुस्कान हमेशा खेलती रही…वे कहीं गए नहीं हैं…वे अजन्मा होकर विराट को और नजदीक से महसूस करना चाहते थे…इसलिए उसमें लय हो गए हैं…अब हम उन्हें और भी पास महसूस कर रहे हैं…वे हवाओं के जरिए जड़-चेतन के जर्रे-जर्रे में बिखर कर अप्रत्यक्ष, निर्विकार, नि:शब्द फिर हमारे जीवन को नया आयाम देने के लिए उद्दत हो रहे हैं…ऐसे हैं हमारे भैय्या प्रोफेसर कमल दीक्षित….शत-शत… नमन भैय्या…महेश दीक्षित…