कोरोना से अधिक उसकी दहशत, अस्पताल की बेरुखी ने मार डाला प्रभु जोशी को

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*कीर्ति राणा*

आज फिर आंखों के सामने कोरोना काल वाले वो सारे दृश्य घूम गए। रह रह कर प्रभुदा का चेहरा और उनकी सांस कायम रहे इसके लिए ठीक एक साल पहले सुबह से की गई भागदौड़ याद आती रही।मुझे लगता है वो कोरोना से अधिक अस्पताल और उस दौरान की बदइंतजामी से भयाक्रांत थे।

कोरोना काल में पत्रकारिता करते हुए मैंने भी इस सच को बेहद करीब से महसूस किया था कि अकाल मौत का शिकार होने वालों में उन का प्रतिशत भी कम नहीं था जो कोरोना से अधिक उसकी दहशत का शिकार हुए। उस दौरान अमृत तुल्य माने जाने वाले रेमडिसिविर इंजेक्शन का इंतजाम ना हो पाने में ही मरीजों ने दम तोड़ दिया तो कई सैकड़ों मरीजों के परिवार अपने आदमी की सांस चलती रहे इस जद्दोजहद में कंगाल हो गए।

प्रभु दा बच सकते थे लेकिन नहीं बचे तो उसकी एक बड़ी वजह कोरोनावाली दहशतगर्दी भी रही।वो तो एंबुलेंस से मेदांता अस्पताल के लिए रवाना भी हो गए थे। वहां खाली बेड के इंतजार में स्ट्रेचर पर पड़े पड़े देख रहे थे कि थोड़ी थोड़ी देर में एक के बाद एक डेड बॉडी लेकर अस्पताल स्टॉफ आसपास से गुजर रहा है।

जिस अस्पताल से मरीज को प्राण रक्षा की अपेक्षा थी उसका साफ कहना था दवाइयों का इंतजाम आप को ही करना होगा, रेमडिसिविर इंजेक्शन का पूरा कोटा भी आप को ही लाना होगा। ऑक्सीजन सिलेंडर हमारे स्टॉक में नहीं है, अपने मरीज के लिए आप को ही लाना है। बेड बड़ी मुश्किल से खाली हुआ है, एडमिड होना चाहते हैं तो हर दिन का बेड चार्ज 20 हजार रु लगेगा। चेकअप के लिए आए डॉक्टर ने दस कदम दूर से ही नाम वगैरह पूछ लिया। गले में स्टेथेस्कोप टंगा जरूर था लेकिन छाती पर लगा कर चेक करने की जहमत नहीं उठाई।

अस्पताल में दाखिल मरीज का आधा दर्द तो आसपास रहने वाले तीमारदार और मिजाजपुर्सी के लिए आने वाले अपनों के चेहरे देख कर दूर हो जाता है लेकिन कोरोना वाले मरीज का अस्पताल में दाखिल होने का मतलब था-स्टॉफ की बेरुखी, अनदेखी और अकेले रहते हुए कमरे की दीवारों को ताकते रहना। जो लेखक चौबीस घंटे अपनी कहानियों के पात्रों से घिरा रहता हो, वॉटर कलर जिसके आसपास तैरते रहते हों और अंधेरा भी जिससे बतियाने को लालायित रहता हो वो भला अस्पताल में पत्नी, बेटे का चेहरा देखे बगैर अकेले रहने, सिर्फ बेड का भारी भरकम खर्च उठाने की हिम्मत कैसे जुटाता।

प्रभु दा कतई नहीं मरते, कोरोना की दहशत और अस्पताल के भयावह दृश्यों-व्यवहार ने उन्हें अकाल मौत का दंड दे दिया।जीते जी तो प्रभु दा को उनके कला कर्म का समुचित सम्मान नहीं मिला कोरोना का शिकार होने के बाद तो उनकी मौत भी एक आंकड़े में तब्दील होकर रह गई।अस्पतालों की मनमानी, लापरवाही, लूटखसोट याद नहीं है। सरकारें भी सब भूलभाल कर अपने काम में लग गईं हैं। सबका काम चलते रहना चाहिए।