रंगीले-छबीले की मजार…..

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विजय मनोहर तिवारी

74 साल के चंद्रशील द्विवेदी इलाहाबाद हाईकोर्ट वकील रहे हैं। उनके पिता डॉ. रामशंकर द्विवेदी साठ और सत्तर के दशक में प्रसिद्ध वकील रहे हैं। वे संस्कृत में पीएचडी थे और उस जमाने के कुछ महत्वपूर्ण सियासी और मजहबी मामलों में पैरवी के कारण चर्चित भी रहे थे। चंद्रशीलजी वकालत का काम अपनी अगली पीढ़ी सौंपकर अब भारत की यात्राएं करते हैं। पिछले दिनों मध्यप्रदेश में विदिशा के पास उनका उदयपुर आना हुआ।

इलाहाबाद कभी प्रयागराज था, जो सदियों की भटकन के बाद एक बार फिर प्रयागराज के रूप में संसार के सामने है। उत्तर भारत में प्राचीन भारत की विरासत बहुत बुरी तरह बरबाद हुई है। फाहयान और व्हेनसाँग ने अपने विवरणों में जिन महान तीर्थों और विश्वविद्यालयों के बारे में लिखा है, उनके नामोनिशान मिटा दिए गए और यह विध्वंस किसी भूकंप या सुनामी ने नहीं किया था। उदयपुर जैसे गुमनाम कस्बे में आकर चंद्रशील द्विवेदी हैरत में पड़ गए- ‘यहाँ इतना कुछ बचा रह गया और इसे इस हाल में छोड़कर रखा गया। हमारे यहां तो अब खंडहर भी शेष नहीं हैं। बस स्मृतियों में ही भूला-बिसरा इतिहास है। प्रयागराज का वैभव इलाहाबाद की धूल में दबा रहा।’

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एक किस्सा उन्होंने सुनाया। इलाहाबाद के एक व्यस्त मार्ग पर एक मजार हुआ करती थी, जो रंगीले-छबीले की मजार के नाम से ही जानी जाती थी। उसकी देखभाल करने वाले लोग रास्ता चलते ट्रकों और कारों को रोककर मजार पर चादर और चढ़ावा चढ़ाने के लिए कहते थे। यह बात उड़ाई गई थी कि अगर यहां मत्था न टेका तो आगे हादसा तय है। यह एक किस्म की धमकी ही थी और खुलेआम उनकी रोकटोक पर पुलिस वगैरह कुछ कहती-करती नहीं थी। गंगा-जमनी शहर में जो भी था, खुलेआम था और वो यही था। वे बिल्कुल गाड़ियों के सामने आकर रोका करते थे और साइड में लगवाकर ही मानते थे। मरता क्या न करता। लोग भी रुकते। दो, चार, दस रुपए की जेब कटाकर ही आगे बढ़ते थे। कुछ लोगों के लिए वह एक कमाऊ जगह बन गई थी।

मगर यह कोई नहीं जानता था कि रंगीले-छबीले थे कौन? वे कहां के थे और यहां कैसे दफन हो गए थे? क्या वे इलाहाबाद के ही थे या बाहर से आकर यहां खाक में मिले थे?

द्विवेदी बताते हैं कि हम लोगों ने खूब कोशिश की। इतिहास के जानकारों से बात की। साहित्यकारों से पूछा। आसपास के आम लोगों से भी सवाल किए। लेकिन कोई बता नहीं पाया कि रंगीले-छबीले थे कौन? क्या वह संगीतकारों की कोई जोड़ी थी या नाम के अनुसार कोई जोड़ीदार शायर थे? सूफियों का नाम तो नहीं लगता, न ही किसी योद्धा का। इलाहाबाद से जुड़ी इतिहास की किताबों के किसी पन्ने पर भी इस नाम के कोई शख्स उजागर नहीं होते थे। लेकिन एक सड़क के व्यस्त राजमार्ग में बदलने के साथ ही रंगीले-छबीले की मजार रौनकदार होती चली गई। हर दिन सैकड़ों ट्रक और कारें निकलते। चंदा वसूली का कारोबार चल पड़ा। सेक्युलर सरकारों ने प्रयागराज को इलाहाबाद ही रहने दिया और यह मजार उसी इलाहाबाद में फलती-फूलती रही। गंगा-जमना का शहर था, जहां से गंगा-जमनी रवायत का जुमला गुब्बारे की तरह हवाओं में उछला था। यह भारत के महान प्रधानमंत्रियों का शहर था।

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वकालत छोड़ने के बाद उनका इलाहाबाद भी छूट गया और वे अपने गाँव लौट गए। सत्तर साल की उम्र तक चंद्रशील द्विवेदी ने कांग्रेस का चरम उत्कर्ष देखा था। संजय गांधी के शक्तिशाली दौर में वे खुद इलाहाबाद विश्वविद्यालय की छात्र राजनीति से जुड़े रहे थे। कांग्रेस के पराभव के बाद दूसरी सेक्युलर जमातें सत्ता में आई थीं, जिन्होंने वोटों की खातिर कब्रस्तानाें की रखवाली की नायाब उपलब्धियां हासिल की थीं। रंगीले-छबीले जो भी रहे होंगे या नहीं रहे होंगे, लेकिन बाद मरने के उनकी मजारों के जरिए उनकी किस्मत भी बुलंदी पर थी। ट्रक, कारें और जीपें रोकी जाती थीं। मत्था टिकवाने का काम मजार के प्रबंधकों और उनके पालतू सेवकों का था। क्या मजाल कोई चूँ कर जाए। सेक्युलर मौसम में अकीदत हरी-भरी थी।

बरसों बाद एक बार फिर चंद्रशील द्विवेदी इलाहाबाद लौटे। लेकिन अब वह इलाहाबाद नहीं था। वह अपने पुराने पते पर लौटा हुआ शहर था। वह प्रयागराज हो चुका था। लखनऊ में कुछ बदला था। उस बदलाव के असर गंगा-जमना के तट पर देखे गए और अयोध्या-बनारस में भी। द्विवेदीजी के लिए यह वही इलाहाबाद नहीं था, जहां जीवन के सत्तर साल उन्हांेने बिताए थे।

वे उस राजमार्ग पर भी गए, जहां कभी रंगीले-छबीले की रौनक हुआ करती थी, बिना यह जाने कि ये रंगीले और छबीले साहब थे कहां के, आए कहां से थे और किस शुभ मुहूर्त में इलाहाबाद की मिट्‌टी में समा गए थे? अकबर इलाहाबादी ने भी इनके बारे में किसी शेर में कुछ बयान नहीं किया था। सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने भी इस निराली जोड़ी पर चार लाइनें कभी नहीं लिखीं थीं। महादेवी वर्मा को किसी बुंदेले हरबोलों ने इनके कारनामे नहीं सुनाए थे। फिराक गोरखपुरी की कलम से भी रंगीले-छबीले का कोई जिक्र कभी नहीं गुजरा। हरिवंश राय बच्चन की मधुशाला में भी ये जोड़ी कभी नहीं छलकी। हो सकता है इलाहाबाद से छपने वाली माया और मनोहर कहानियाँ में उन पर किसी ने कोई स्टोरी लिखी हो। बस वे उस व्यस्त सड़क पर हरी चादरों में लिपटे मरणोपरांत हीरो थे।

एक अनुमान यह है कि अगर कोई पुरानी कब्र रही भी होगी तो हो सकता है कि कहीं से आकर किसी चतुर आदमी या दो चतुर आदमियों ने अपना डेरा वहां जमा लिया होगा। यही जोड़ी रंगीले-छबीले की होगी और इनको यह नाम जाहिर है कि किसी साहित्य सृजन के लिए तो नहीं ही मिला होगा। वे यहां जम गए होंगे। कुछ कहानियां गढ़ ली गई होंगी। सड़क व्यस्त होती गई तो ये लोग उस गुमनाम कब्र के मार्केटिंग एक्जीक्युटिव बन गए होंगे। रौनक जुटने के साथ ही यहां-वहां के फुरसतियों को भी काम मिल गया होगा। ट्रकों को रोको, दाम बनाओ।

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द्विवेदीजी ढूंढते रहे मगर रंगीले-छबीले का यह अड्‌डा वहां उन्होंने नजर नहीं आया। पूछताछ की तो पता चला कि अब मौसम बदल गया है। अज्ञात रंगीले-छबीले का तीर्थ विकसित करने वाले कोई दस्तावेज नहीं बता सके। हाईवे का विकास होना था। न दस्तावेज थे, न रंगीले-छबीले का किसी किताब में जिक्र था। मामला हवा-हवाई था। पुलिस वही थी, प्रशासन वही था। वह पहले कब्रस्तानों की रखवाली के लिए लगा रहता था। उर्स में कव्वालियां सुनता था। निजाम बदला तो कानून की खिड़की से देखने पर उन्हें पहली बार पता चला कि वह तो एक गैर कानूनी कब्जा है। लखनऊ से हुक्म हुआ कि कानून अपना काम करे। कानून ने अपना काम किया। द्विवेदीजी को सालों बाद वहां हाईवे तो नजर आया, लेकिन कोई ट्रक रुकता हुआ नहीं दिखा। रंगीले-छबीले बाइज्जत विदा हो चुके हैं।

बहुत साल पहले एक बार द्विवेदीजी की कार को भी वहां रोका गया था। तब वे वकालत करते थे। खिड़की खोलकर द्विवेदीजी ने उस उत्साही जवान से पूछा था-काहे रोक रहे? उसने घूरकर देखा और बीड़ी का कश लगाते हुए बेपरवाही से कहा-बाहर के हो, पता नहीं यहां आगे का सफर बाहिफाजत बनाने के लिए रंगीले-छबीले के दर पर दस्तक दी जाती है। मजाकिया स्वभाव के वकील साहब ने फरमाया-हम क्या कम रंगीले-छबीले हैं, जो किसी और रंगीले-छबीले के यहां माथा नवाएंगे। अरे जाओ मियाँ, किसी और को रोको, हमें नाहीं। हम यहीं के हैं।