यूं तो इस पृथ्वी पर कई महान व्यक्तियों ने जन्म लिया है जिन्होंने दुनिया को सत्य, अहिंसा और शांति का पाठ पढ़ाया है लेकिन उन सब में जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी का एक विशिष्ट स्थान है। महावीर एक आध्यात्मिक गुरु ही नहीं बल्कि वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक भी थे। वैज्ञानिक, सच तक पहुंचने के लिए प्रयोगशाला में प्रयोग करते हैं तो महावीर ने अपने शरीर को ही एक प्रयोगशाला में तब्दील कर लिया था। वर्षों की कठोर तपस्या (शोध) के पश्चात उनकी आत्मा की ज्ञानशक्ति विकास के उस चरम पर पहुंची जिसे जैन दर्शन में केवलज्ञान कहा जाता है।
भगवान महावीर ने जाति, समुदाय, धर्म, रंग या क्षेत्र के आधार पर असमानता को दूर करने के लिए अनेकांत (अनेकता में एकता) का सिद्धांत प्रतिपादित किया था। उन्होंने कहा था हमें अपनी आस्थाओं के साथ-साथ दूसरों के दृष्टिकोण का भी सम्मान करना चाहिए। वो कहते थे कि युद्ध, पहले मन में उत्पन्न होता है, फिर युद्ध के मैदान में लड़ा जाता है। उनका मानना था कि चर्चा और सामाजिक अहिंसा को अपनाने से असमानताओं को दूर किया जा सकता है। वर्तमान परिदृश्य में इससे अधिक प्रासंगिक कुछ भी नहीं हो सकता है। मानवता के लिए उनका संदेश था कि स्वयं के मन की और आत्मा की शांति प्राप्त करने के बाद ही विश्व शांति का मार्ग प्रशस्त हो सकेगा।
वस्तुत: मानव हर बात को अपने नजरिये से देखता है और सोचता है कि जो मैं समझ रहा हूं वही सही है। सारी समस्याएं, द्वेष, विद्रोह आदि इसी एक पक्षीय समझ के कारण होते हैं। हम किसी भी बात का मात्र वही पहलू देखना चाहते हैं जो हमारे स्वार्थो के सबसे करीब होता है। अनेकांत का सिद्धान्त बताता है कि वैचारिक भिन्नता एक वास्तविकता है, सहमति और असहमति वैचारिक भिन्नता से उपजे दो कारक हैं, लेकिन इनमें से कोई भी कारक हमें यह निर्णय लेने का अधिकार नहीं देता कि जिस विचार, जिस सोच से हम सहमत नहीं है उसे हम नकार दें। अनेकांत दृष्टि के मूल में दो तत्व हैं, पूर्णता और यथार्थता। जो पूर्ण है और पूर्ण होकर यथार्थ रूप में प्रतीत होता है, वही सत्य है।
भगवान महावीर स्वामी का दूसरा बड़ा सिद्धांत अहिंसा है। “अहिंसा परमो धर्म:” अहिंसा ही सबसे बड़ा धर्म है, यही मानव का सच्चा धर्म है, और यही मानव का सच्चा कर्म भी है। प्रतिक्रियात्मक आवेश में, क्रोध में, भावावेश में, ईर्ष्या वश अथवा अन्य मानसिक असंतुलन की स्थिति में मनुष्य किसी प्राणी को शारीरिक या मानसिक क्षति पहुँचाकर हिंसा कर बैठता है। दूसरों को दुख देना या दूसरों के अधिकार छीनना ही हिंसा है। बुद्ध ने जिसे तथाता कहा है, महावीर उसे ही अहिंसा कहते हैं। लाओत्से ने जिसे टोटल एक्सेप्टेबिलिटी कहा है कि मैं सबको स्वीकार करता हूं, उसे ही महावीर ने अहिंसा कहा है। जिसे सब स्वीकार है, वह हिंसक कैसे हो सकेगा।
महावीर परिग्रह को हिंसा कहते हैं और अपरिग्रह को अहिंसा। आपके पास कोई वस्तु है, आपका उससे कितना मोह है, कितना आप उसको पकड़े हुए हैं, कितना आपने उस वस्तु को अपनी आत्मा में बसा लिया है। यह परिग्रह या वस्तुओं के प्रति आसक्ति हिंसा को जन्म देती है। जमीन का वह टुकड़ा, जिसको आप अपना कह रहे हैं, कालांतर में आपसे पहले कितने लोग उसे अपना कह चुके हैं। कितने लोग उसके दावेदार रह चुके हैं। दावेदार आते हैं और चले जाते हैं और जमीन का टुकड़ा अपनी जगह ही रहता है। दावे सब काल्पनिक हैं हमारे जीवन में हिंसा इसीलिए है कि बिना दूसरे को मारे मालिक होना मुश्किल है। क्योंकि दूसरा भी मालिक होना चाहता है।
महावीर कहते हैं कि विचार की संपदा को मेरा मानना भी हिंसा है। क्योंकि जब भी हम यह कहते हैं कि यह मेरा विचार है, इसलिए सत्य है, तब हम यह नहीं कहते कि जो मैं कह रहा हूं वह सत्य है, बल्कि तब हम यह कहते हैं कि मैं ही सत्य हूं और जब मैं स्वयं सत्य हूँ तो मेरा विचार तो सत्य होगा ही। इस जगत में जितने भी विवाद हैं वे सत्य के विवाद नहीं हैं। वे सब इसी “मैं” के विवाद हैं।
अहिंसा, अनेकांत और अपरिग्रह दरअसल एक ही मूल सिद्धान्त के तीन पहलू हैं, अहिंसा का आचार, अनेकांत का विचार और अपरिग्रह का व्यवहार मनुष्य के जीवन को चेतना के ऊर्ध्वमुखी सोपानों पर स्थापित कर विश्व शांति और सह अस्तित्व का मार्ग प्रशस्त करता है।
विचार संकलन : राजकुमार जैन, स्वतंत्र लेखक
अलग से बॉक्स मे:
महावीर के जीवन को एक शब्द मे लिखना जो तो वह शब्द होगा “नो लस्ट फार लाइफ’। महावीर कहते हैं हिंसा का आधारभूत भाव ही जीवेषणा यानि जीने की आकांक्षा है। जीवन से कुछ फलित न भी होता हो, जीवन से कुछ हासिल न भी होता हो, तो भी हम जीवन की डोर को खींचते रहना चाहते हैं। और यह जीने की इच्छा इतनी बलवती है कि हम दूसरे के जीवन को मिटा कर भी जीना चाहते हैं। अगर यह कहा जाय कि सम्पूर्ण संसार को मिटाकर मुझे जीवित रहने की सुविधा दी जाएगी तो मैं सबका विनाश करने के लिए राजी हो जाऊंगा। जीवेषणा की इस विक्षिप्तता से ही हिंसा की उत्पति होती है।
– राजकुमार जैन, स्वतंत्र विचारक