● डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’
राष्ट्र के निर्माण से संवाद की आवश्यकता तक, भगवत के अवतरण से भक्ति की अनन्य धाराओं तक, स्वाधीनता संग्राम से अमृत महोत्सव के वैभव तक, विधान विहीन देश से संविधान की स्थापना तक, प्रथम चयनित प्रधान से इक्कीसवीं सदी के प्रधान तक, सांसदों के चयन से चुनाव के प्रचार तक, प्रगति की आधारशिला से सफलता की अट्टालिकाओं तक, विखंडन और विभाजन के कलंक से एकीकरण के विजय तिलक तक, तालुकाओं के अंश से महा पंचायत के सर्वांग तक, महल के संबोधन से लाल किले की प्राचीर तक, अंतिम जन की अरदास से ढाँचागत विकास तक, अन्त्योदय से भारत उदय तक, यदि कहीं एकता का एक सूत्र नज़र आता है, जो भारत की अखण्डता और सशक्त संवाद की धारा का प्रबल समर्थक है तो वह सूत्र राष्ट्र की भाषाई ऊर्जा यानी सर्वस्पर्शी हिन्दी भाषा है।
देश की जनगणना के आधार पर लगभग पचास प्रतिशत से अधिक भारतीयों की मातृभाषा या कहें प्रथम भाषा हिन्दी है। हिन्दी से भारत का प्रत्येक वर्ग परिचित है, देश में काम करने वाला मज़दूर भी हिन्दी जानता है तो बड़े-बड़े उद्योगों के संचालक या मालिक भी। यह अकाट्य सत्य है कि हिन्दी ही भारत की जनभाषा है। किन्तु कतिपय राजनैतिक कारणों से हिन्दी का खोखला विरोध भी इस भाषा के खाते में अंकित है।भाषाई विरोध के मध्यम स्वरों को वोटबैंक का आधार मानने वाले राजनैतिक दल भी अपना चुनाव प्रचार हिन्दी में करते हैं। दक्षिण के विरोध की सिसकियाँ भरने वाले लोग भी इस बात को बख़ूबी जानते हैं कि इस राष्ट्र की अखण्डता का जनाधार भी हिन्दी से सम्पूर्ण हो पाता है।
बहरहाल, भाषा के सम्पूर्ण प्रभाव के आँकलन की ओर नज़र दौड़ाई जाए तो यह तथ्य भी सामने आएगा कि हिन्दी के अतिरिक्त देश में ऐसी कोई अकेली भाषा नहीं है, जो बीस प्रतिशत भूभाग को भी अपने हिस्से में शामिल कर पाए। जनगणना के आधार पर दक्षिण भारतीय भाषाओं का आधिपत्य महज़ सात प्रतिशत ही है, सिंधी, कश्मीरी, डोंगरी, पंजाबी, भोजपुरी, हरियाणवी इत्यादि भाषाओं का अस्तित्व एक-एक राज्य में बहुतायात में होने के उपरान्त भी दो-तीन प्रतिशत से अधिक नहीं है।
अंग्रेज़ी की स्थिति तो और भी अधिक दयनीय है। पूरे भारत में अंग्रेज़ी इकाई के प्रतिशत में सिमटी है। यही कारण है कि हिन्दी की स्वीकार्यता सम्पूर्ण राष्ट्र में बहुतायत में है, किन्तु विडम्बना यह भी है कि हिन्दी भी अब तक भारत की राष्ट्रभाषा नहीं बन पाई जबकि शेष भारतीय भाषाओं का अस्तित्व भी हिन्दी के वृक्ष पर लिपटी बेल की तरह ही है, जिनका पोषण, पल्लवन और विस्तार भी हिन्दी के प्रभाव के कारण ही थोड़ा बहुत है।
भारत विश्व का दूसरा बड़ा बाज़ार है और भाषा का अस्तित्व भी बाज़ार की स्वीकार्यता से अधिक मज़बूत हो जाता है। तब भारतीय बाज़ार हिन्दी को ही सहज भाव से स्वीकार करते हैं, क्योंकि विश्व में हिन्दी से भी भारत का परिचय है। लगभग एक सौ चालीस करोड़ लोगों की आबादी वाला राष्ट्र भारत अपनी सर्वस्वीकार्य भाषा हिन्दी के आलोक में ही बाज़ार पर कब्ज़ा कर रहा है, जो लोग भारत में काम करना चाहते हैं, वह भी हिन्दी को महत्त्व दे रहे हैं, जैसे गूगल ने हिन्दी को उपलब्ध करवाया, लिंक्डइन, फ़ेसबुक, ट्विटर इत्यादि हिन्दी भाषा में सहज उपलब्ध हैं। यहाँ तक कि कॉमनवेल्थ की आधिकारिक भाषाओं में हिन्दी वरीयता से सम्मिलित है। विश्व के कई देशों में अध्यापन में हिन्दी पढ़ाई जाती है, मध्यप्रदेश में तो मेडीकल व इंजीनियरिंग की पढ़ाई भी हिन्दी में करवाई जाने लगी है।
यह नितांत प्रांजल है कि जब काम भारत में करना है तो उस भाषा का ज्ञान अधिक होना चाहिए, जिसकी स्वीकार्यता देश के अधिकांश भूभाग पर सामान्यतः सर्वाधिक हो। पर्यटन की दृष्टि से भी देखा जाए तो हिन्दी में सहज राज्यों की पर्यटन से आय अधिक है जबकि गैरहिन्दीभाषी राज्य पर्यटन संपदा से मज़बूत होने के बाद भी पर्यटन से आय कम हासिल कर पा रहे हैं। ऐसा मानना है कि भारत में आधे राज्य हिन्दी भाषी है।इसी तरह भारत भारती का यशगान इस बात से निर्धारित होता है कि भारत की भाषा राष्ट्र की अखण्डता का एक कारक भी हैं।
हिन्दी के माध्यम से लाखों लोग रोजगार अर्जित कर रहें है। इसी कारण हिन्दी भारत की जनभाषा भी है औऱ निर्वाचित वैभव भी।वैसे भी भारत पर्यटन सम्पदा सम्पन्न देश है, किसी अर्थव्यवस्था में जिस भाषा का आधिपत्य है उसी का कब्ज़ा है। भारत में हिन्दी भाषा से कामकाज को मजबूती मिलती है, इसी कारण इसे अर्थव्यवस्था की रीढ़ की हड्डी भी कहा गया है।
डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’
राष्ट्रीय अध्यक्ष, मातृभाषा उन्नयन संस्थान, इन्दौर
(लेखक देशव्यापी हिन्दी प्रचार आंदोलन के प्रमुख है)
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