देव कुमार पंवार
आधुनिक भारत में एक ऐसे संगठन का उदय हुआ जिसका ना तो कोई मालिक और ना चेहरा ।जिसका कोई भी व्यक्तिवादी चेहरा नहीं बनता ।चेहरा और चिंतन यदि बनता हैं भी तो सामूहिक बनता हैं ।इसलिए जब भी किसी की दिशा गलत हुई ।दिशा को जब तक ठीक नही किया गया ।संगठन से जुड़े लोग आपस में ही खिचतान करने लगे ।कई बार तो लगता था की ये सामूहिक चेतना का विचार जल्द ही अस्त हो जायेगा ।
परंतु ये सामूहिक चेतना और बुजुर्गो द्वारा पोषित पीढ़ी दर पीढ़ी दिया गया ज्ञान ऐसा था की जिसकी कभी हत्या नही की जा सकती । जो की जिम्मेदार हैं सही को सही ओर गलत को गलत कहने के लिए ।बिना किसी राष्ट्रीय या अंतराष्ट्रीय दबाव के । जिसका आधार हैं समाज और सामाजिक चेतना ओर मानना हैं की समाज से बड़ा ना तो पहले कभी हुआ और ना होगा ।
जिसकी भी जब भी गलती होगी व्यक्ति भी सामूहिकता और समाज को साक्षी मानकर उसपर उंगली उठा सकता हैं।और यदि उसकी बात सही हैं तो समाज उसका अनुमोदन हर हाल में करेगा इसी विश्वास के साथ इस विचारधारा की नीव रखी गई । ये अलग बात हैं की वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए कभी खुला समर्थन मिल पाया और कभी मूक समर्थन ।इसलिए संगठन से जुड़ने वाला हर आदमी जानता हैं की जिस विषय पर बात हो रही हैं वह समाज के संदर्भ में हो रही हैं ।
ओर इस चेतना को फैलाना या संकुचित करना स्वयं समाज के हाथ में हैं । व्यक्ति तो समाज की आत्मा की बात कहने का एक माध्यम भर हैं ।जिसको जो मिला हैं सब यही से लिया हैं वह चाहे ज्ञान हो या चिंतन । आदिक्किसान ये बताने मैं समर्थ हुआ की पंचायतें और आत्मनिर्भर कृषि सभ्यता और आदिवासी सभ्यता हमारी नीव रही हैं ।साथ ही ये बताने मैं भी सफल रहा की जिसकी वजह से किसान और उन वर्गो से निकलने वाले लोग एवं आदिवासी और उनके बीच से निकलने वाले लोग प्रताड़ित हैं ।तथा उनकी भौगोलिक संपदा का दोहन हो रहा हैं ।
उसका कारण व्यक्तिवादी संविधान हैं।जो कभी धर्मो में समाज को बांटकर या फिर मसीहा मैं समाज को बांटकर ,समाज या देश की दुर्दशा का कारण बना हैं। यह सभी संविधान सभा की डिबेट के उदाहरण उठाकर स्पष्ट भी किया गया । ओर संविधान के अंतर्द्वंद्व भी स्पष्ट किए गए जो की एक दूसरे वर्ग के खिलाफ जो मतभेद बने उनका आधार रहा हैं।
साथ ही ये भी स्पष्ट किया की इसी आधार पर पार्टियों के संगठन और आइडियोलॉजी तै हुई जो समाज और उसके भाईचारे और फैब्रिक को तोड़कर व्यक्तिवादी बनाते हैं और फिर पीढ़ियों की वफादारी के नाम पर और संविधान या व्यक्ति पर श्रद्धा के नाम पर कभी लोगो को एक दूसरे वर्गो के खिलाफ होने को पंक्तिबद्ध करते हैं और जब मन आया धर्मनिरपेक्षता या भाईचारे के नाम पर अपने ही फैलाए जहर को समेटने के नाम पर आरोप भी लोगो या समाज पर रख देते हैं ।
Aadikisan ने ये भी स्पष्ट किया की किसी भी धर्म का संबंध इस भौगोलिक छेत्र से नहीं हैं । आध्यात्मिकता का मौखिक और मौलिक चिंतन यहां जब से समूह तैयार हुए गांव और खेड़ा बसे तब से ही रहा हैं साथ ही पंचायतों के प्रति अगाध निष्ठा और भाईचारे के प्रति गहरी आस्था इस भौगोलिक छेत्र की पहचान रही हैं विभिन शोध द्वारा aadikisaan ने साबित किया की सारे धर्म एक ही जगह से संचालित हुए हैं ।और सिल्क रूट व्यापारी उनका main source रहे हैं।
जिन्होंने अपने फायदे के लिए घुलती मिलती सी कहानियां और व्याख्यानों को इस तरीके से लिखा की उनके द्वारा पोषित लोग उन्हें चिरकालिक लाभ देते रहे व्यवस्था के माध्यम से । ओर अपने वास्तविक चिंतन को लोग समझ ही ना सके जो उनकी आत्माओं मैं बसता हैं। फिर भी aadikisan में लोगो की भावनाओ से जुड़े अंतर्द्वंद्व समय समय पर झगड़े और बौद्धिक चर्चा का केंद्र बने जिसका कारण था व्यक्ति विशेष लोगो या समूह के कुछ भागों का दूसरे समूह पर अतिरेक और अतिरंजित तरीके से लगाए गए आरोप प्रत्यारोप । बहुत बड़ा कुनबा होने के कारण इस तरीके की परिस्थितियां स्वाभाविक ही थी ।
आरोप इस तरीके के थे जैसे की आप के लोगो ने व्यवस्था या धर्म के सामने पूरी तरह सरेंडर कर दिया या आप अपना मूल चरित्र को बैठे हो इस व्यक्तिवादी या मसीहावादी व्यवस्था के सामने जो की कुछ व्यक्तियों के लिए आंशिक रूप से सच तो था पर उससे जुड़े समूह के लिए कभी नहीं । इसी तरह उसी समूह के लोग आते गए और अच्छी अच्छी तरीके से बताते गए की लोगो की अब तक पंचायतों के प्रति और समाज के प्रति एवं भाईचारे के प्रति अगाध आस्था रही हैं ,धर्म और पार्टी के इतर जिसको वो इनके लिए कभी भी एकतरफ रख सकते हैं।
तभी किसान आंदोलन में विभिन्न जाती और समूह और धर्म से संबंधित लोग 13 महीनो तक इक्कठे बैठ सके ।pseudo बॉर्डर की सब दीवारों को लांघकर और व्यवस्था की बनाई सारी दिवारे गिराकर । संघर्ष अभी ओर भी हैं,पर मोटे तौर पर ये दिखा दिया गया की समाज के बहुत अंदर तक अपनी अपनी सभ्यता के प्रति गहरी आस्था हैं जो की वास्तविक सभ्यता हैं थोपी हुई नही और प्राचीन हैं लिखित नहीं। जिसे विदेशो में दो पीढ़ी काट देने वाले लोग भी नही भूले और अपने भाईयो के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़े हुए ।
Aadikisan ने शीशे पर पड़ी सभी धूल उतारने की कोशिश की ओर काफी लोगो को सहमत भी किया अपने तर्क से । परंतु aadikisan का लक्ष्य अतीत के गुण गाने मात्र का नही रहा।वह रहा हैं,व्यवस्था में ऐसा बदलाव जो यहां के समाज और परिस्थितियों के अनुकूल हो जिसे लोग आत्मा से स्वीकार करते हो ।कुछ लोग समझते हैं की adikisan किसी श्रम या व्यापार के खिलाफ है।ये सबसे बड़ा अंतर द्वंद्व उभर कर सामने आया ।परंतु ऐसा कभी नहीं रहा ।
आदिकीसान ने समय समय पर कहा हर भौगोलिक छेत्र अपने मैं अनूठा हैं ।और आदिवासी और किसान होते हुए भी अपनी अपनी भौगोलिकता के हिसाब से हर समाज अलग भी हैं । जिसने अपने अपने आसपास शहर भी बनने दिए और पराए लोगो को भी बसने और फलने फूलने का मौका दिया ,बस परिणामों की चिंता ज्यादा नहीं की गई ।परंतु उसका कारण पराए लोग ना होकर पराई व्यवस्था रही हैं।
फिर भी इन शहरो और तकनीकों ने आदिकिसानों को पूरी दुनिया से परिचित होने का मौका दिया जिसका फायदा भी हैं और नुकसान भी । किंतु हर भौगोलिक छेत्र यदि व्यवस्था अपनी आपसी सहमति से बनाए पंचायतों के माध्यम से बनाए और अपने छेत्र में आने वाले सभी उधमो ओर पदो पर अपनी अपनी शहभागिता सुनिश्चित करे साथ ही अपने पुराने काम धंधों को आज की टेक्नोलॉजी के हिसाब से गांव में ही खड़ा करे आपसी समन्वय से तो शांतिपूर्ण सह अस्तित्व संभव हैं । इसका आभास भी aadikisan ने दिया । अंत में अपने तमाम वाद विवाद और संघर्षों के बीच aadikisan ने ये बात समझाई की दुनिया को पाना अच्छा हैं पर सिर्फ अपने लिए नहीं ।अपने समाज और मूल के साथ तभी उसकी ओर आपकी एहमियत हैं दुनिया में । नही तो गुच्छे से अलग अंगूर की तरह सड़ कर मरना ही परिणीति हैं ।