बेटमा में दशहरे की परंपरा निभाया नहीं जिया जाता, 100 वर्ष पुरानी शाही परंपरा को विदेश से देखने आते लोग

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जैसे-जैसे हर बरस बेटमा के शाही दशहरे के वीडियो और फोटो अगले दिन अखबारों और मोबाइल पर दौड़ने लगते हैं उसके बाद 20-50 किलोमीटर दूर रहने वाले लोगों के फोन आ ही जाते हैं कि इस तरह की शाही परंपरा हमारे नजदीक में ही निभाई जा रही थी और हमें पता नहीं था,वैसे तो बेटमा के शाही दशहरे की उम्र 100 बरस से ज्यादा हो गई है.

होलकर कालीन राज में शुरू हुआ था, उसके बाद यहां रहने वाले लोगों ने इसे परंपरा समझ कर निभाना शुरू कर दिया, घोड़ों की थाप और बंदूकों की ठाय-ठाय की आवाजों के बीच भव्य आतिशबाजी और बीएसएफ के हॉर्स राइडिंग क्लब की कलाबाजीया देखते ही बनती हैं इसे देखने का अनुभव और महसूस करने की ललक ऐसी है कि दूरदराज से लोगों को यहां खींच लाती है कई ऐसे फोटोग्राफर अपने बेशकीमती कैमरे लेकर यहां पहुंचते हैं जो देश दुनिया की बड़ी मैगजीन और अखबारों के लिए इस काम को पूरा करते हैं.

परंपरा को निभाना और उसे जीना इन दोनों में अंतर है जो बेटमा के लोग बखूबी जानते हैं यहां इस परंपरा को जिया जाता है ना कि निभाया, कस्बे में दशहरा आने के आठ दिन पहले ही तैयारियां शुरू हो जाती हैं शायद यही एक ऐसा इलाका होगा जहां दिवाली से ज्यादा दशहरे की तैयारी होती है, घोड़ों की दौड़ में शामिल होने के लिए आसपास के कई घुड़सवार अमन चमन मां की टेकरी पर महीने भर पहले ही अभ्यास शुरू कर देते हैं सबसे पहले घोड़ों की रेस की करवाई जाती है.

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उसके बाद निशानेबाजी जिसमें 12 बोर और पॉइंट टू टू जैसी बंदूकों का इस्तेमाल होता है फिर भव्य आतिशबाजी और आखिरी में रावण दहन, यह सभी परंपराएं उस भरोसे और विश्वास को मजबूत करने का काम करती है जिसमें रावण को मार कर राम ने सकारात्मकता दिखाई और संदेश दिया कि बुराई चाहे जितनी बड़ी हो जाए हमेशा अच्छाई से पीछे ही रहेगी।