अजय बोकिल
बीते दो साल में यह दूसरा मौका है, जब एमपी पीएससी में विवादास्पद और बेहद आपत्तिजनक प्रश्न परीक्षार्थियों से पूछा गया है। मामला तूल पकड़ने पर खुद आयोग ने इस प्रश्न से असहमति जताई और इस प्रश्न को रद्द कर दिया गया है।विस्तार इसे ‘अति लोकतंत्र’ कहें, घोर लापरवाही कहें या जड़ता कहें, कि मध्यप्रदेश लोक सेवा आयोग (एमपी पीएससी) की हालिया परीक्षा में कश्मीर से सम्बन्धित एक ऐसा सवाल पूछा गया जो भारत के कश्मीर पर शुरू से चले आ रहे अधिकृत स्टैंड को ही नकारता है। यह सवाल भी उस परीक्षा में पूछा गया, जो सरकार में वरिष्ठ पदों पर सीधी भर्ती के लिए है। इस पर काफी बवाल मचा।
राज्य में सत्तारूढ़ भाजपा सरकार का कहना है कि इस मामले में पेपर सेटर को ब्लैकलिस्ट कर दिया गया है। साथ ही परीक्षा आयोजक एमपी पीएससी और उच्च शिक्षा विभाग को भी पेपर सेटर के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए कहा गया है। बीते दो साल में यह दूसरा मौका है, जब एमपी पीएससी में विवादास्पद और बेहद आपत्तिजनक प्रश्न परीक्षार्थियों से पूछा गया है। मामला तूल पकड़ने पर खुद आयोग ने इस प्रश्न से असहमति जताई और प्रश्न को रद्द कर दिया गया है।
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दो साल पहले इसी परीक्षा में प्रदेश के भील आदिवासियों को लेकर भी ऐसा ही सवाल पूछा गया था, जिसकी जांच के आदेश तत्कालीन मुख्यमंत्री कमलनाथ ने दिए थे। लेकिन लगता है, उसका कोई खास असर नहीं हुआ। आपत्तिजनक और औचित्यहीन प्रश्नों के पूछने का सिलसिला जारी है और वो भी प्रदेश के भावी सिविल सेवकों से। जिन्हें सरकार की नीतियों के दायरे में ही काम करना है।
क्या है पूरा मामला? ताजा मामला एमपीपीसीएस की 19 जून को आयोजित राज्य सेवा प्रारंभिक परीक्षा में सामान्य अभिरुचि परीक्षण के प्रश्न-पत्र में पूछे गए सवाल का है। इसमें पूछा गया था कि क्या भारत को कश्मीर को पाकिस्तान को दे देने का निर्णय कर लेना चाहिए? इसमें परीक्षार्थियों को प्रश्न के साथ दो तर्क भी दिए गए। पहला हां, क्योंकि यह भारत के पैसे बचाएगा और दूसरा विकल्प था नहीं, क्योंकि इससे और अधिक मांगें उठेंगी।
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इसके आधार पर परीक्षार्थियों से जवाब देने के लिए कहा गया। इस प्रश्नपत्र को सेट करने वाले व्यक्ति कौन हैं, यह सरकार छुपा रही है, लेकिन राज्य के गृहमंत्री नरोत्तम मिश्रा ने मीडिया से कहा कि यह पूरा प्रसंग आपत्तिजनक है। जो दो (व्यक्ति) प्रश्न-पत्र बनाने वाले थे, उनमें से एक मध्य प्रदेश और एक महाराष्ट्र का है। इस घटना के बाद दोनों विवादित पेपर सेटर्स पर भविष्य में प्रश्न पत्र तैयार करने पर रोक लगा दी गई है। साथ ही पूरे देश में सूचना देकर कहा गया है कि आगे इन व्यक्तियों से कोई काम न लिया जाए।
एमपीपीएससी के विशेष कार्याधिकारी रवींद्र पंचभाई ने भी कहा-
‘राज्य सेवा प्रारंभिक परीक्षा 2021 के सामान्य अभिरुचि परीक्षण के पर्चे में कश्मीर को लेकर पूछे गए प्रश्न की सामग्री से हम सहमत नहीं हैं, इसलिए हमने इस प्रश्न को परीक्षा से हटा दिया है।’ प्रदेश कांग्रेस ने इसे राजनीतिक मुद्दा बनाते हुए एमपीपीएससी के चेयरमैन के इस्तीफे की और प्रश्नपत्र चयनकर्ता पर एफआईआर दर्ज की भी मांग की है। पार्टी के मीडिया विभाग के अध्यक्ष के.के. मिश्रा ने कहा कि यह स्पष्ट रूप से राष्ट्रद्रोह का मामला है। उस कश्मीर को लेकर ऐसा विवादित सवाल पूछा गया, जिसके लिए सैनिकों ने अपना जीवन बलिदान कर दिया।
उन्होंने सवाल किया कि क्या ऐसा सवाल देश के प्रधानमंत्री, मप्र के मुख्यमंत्री और प्रदेश के गृह मंत्री की सहमति से सवाल पूछा गया था? यह मामला तो तूल पकड़ गया। लेकिन एक और मामला सामने आया है, जिसमें एमपी पीएससी प्री-लिम्स के एक पेपर में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी पर केन्द्रित एक लेखांश में बापू पर आपत्तिजनक टिप्पणी की गई है। इसमें बापू के महान कार्यों और कुत्तों की नसंबदी की तुलना करते हुए निहायत बेहूदा सवाल किया गया है। प्रदेश कांग्रेस मीडिया विभाग के उपाध्यक्ष भूपेंद्र गुप्ता ने आरोप लगाया कि यह भाजपा की ‘महात्मा गांधी विरोधी सोच’ को उजागर करता है.
पिछली सरकारों में भी होती रही है यह गलती आज कांग्रेस भले एमपी पीएससी परीक्षा में पूछे गए सवालों को लेकर तीव्र विरोध जता रही हो, लेकिन खुद उसका दामन भी साफ नहीं है। दो साल पहले भी एमपी पीएससी की परीक्षा में भील आदिवासियों को लेकर ऐसा ही दुर्भावनापूर्ण प्रश्न और टिप्पणी की गई थी। उस समय प्रदेश में कांग्रेस की ही सरकार थी।
एमपीपीएससी की वर्ष 2020 में आयोजित मध्य प्रदेश की राज्य प्रशासनिक सेवा की प्रारंभिक परीक्षा के पेपर में भील समुदाय को ‘आपराधिक प्रवृत्ति’ वाले और ‘शराब में डूबती जा रही जनजाति’ बताया गया था, जिसे लेकर जमकर विवाद हुआ था।
दरअसल परीक्षा के दूसरे सत्र में जनरल एप्टि्यूड के पेपर में उद्धृत गद्यांश के आधार पर भील जनजाति के बारे में ये विवादस्पद प्रश्न पूछे गए थे। इसके बाद आदिवासी समाज समेत सभी राजनीतिक दलों ने पेपर सेट करने वाले अधिकारियों को हटाने की मांग की थी। खुद को आदिवासियों का खैरख्वाह मानने वाली कांग्रेस और उसकी सरकार को असहज स्थिति का सामना करना पड़ा था और उस समय विपक्ष में बैठी भाजपा ने कांग्रेस को ‘आदिवासी विरोधी’ बताया था।
‘जय आदिवासी संगठन’ ने भी इसका कड़ा विरोध किया था। हालांकि तत्कालीन कांग्रेस सरकार के मुख्यमंत्री कमलनाथ ने मामले की जांच की आदेश दिए थे और आरोपियों के खिलाफ एफआईआर दर्ज की गई थी। दिलचस्प बात यह थी कि इस परीक्षा के परीक्षार्थियों में एक भाजपा विधायक राम दांगोरे भी थे, जो बच्चों की कोचिंग भी चलाते हैं। इस मामले में पुलिस ने एमपीपीएससी के तत्कालीन चेयरमैन, सचिव और परीक्षा नियंत्रण के खिलाफ एससी, एसटी एक्ट सहित विभिन्न धाराओं में प्रकरण दर्ज किया था। हालांकि बाद में इंदौर हाई कोर्ट के आदेश पर इसे निरस्त कर दिया गया।
आखिर किस तरह की है ये मानसिकता?
यहां बुनियादी सवाल यह है कि सरकार की प्रतिष्ठित प्रशासनिक सेवाओं में भर्ती के लिए आयोजित परीक्षाओं में भी ऐसे विवादित और अतार्किक सवाल क्यों कैसे पूछे जाते हैं? इन प्रश्नों को कौन तैयार करता है और ऐसे पेपर सेटरों की मानसिकता क्या है? क्या उन्हें देश में घट रही घटनाओं की गहरी जानकारी और स्वतंत्र भारत के विभिन्न मुद्दों पर नीति और कूटनीति का ज्ञान नहीं होता या फिर वो किसी एजेंडे से प्रेरित होकर जान बूझ कर ऐसी गलतियां करते हैं? जिससे बवाल मचे और सत्तारूढ़ दलों को शर्मिंदगी का सामना करना पड़े।
भील आदिवासियों में कुछ लोग आपराधिक प्रवृत्ति के हो सकते हैं, लेकिन आर्थिक अभावों के चलते पूरे समुदाय को ही ‘आपराधिक’ ठहराना दुर्भावना के अलावा कुछ नहीं है। इसी तरह कश्मीर को लेकर पूछा गया सवाल तो आपराधिक शरारत भरा है। यदि हमें उसे पाकिस्तान को ही सौंपना होता तो 75 सालों से चल रहा यह विवाद कभी का खत्म हो चुका होता। लेकिन ऐसा इसलिए संभव नहीं है, क्योंकि भारत की यह स्पष्ट नीति और मान्यता है कि कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है। इसके भौगोलिक, ऐतिहासिक और सांस्कृतिक कारण हैं।
यह केवल धर्म के आधार पर भौगोलिक बंदरबाट का भी स्पष्ट विरोध है। इस मामले में खुद कश्मीरी क्या चाहते हैं, यह भी अहम है, लेकिन इसका अर्थ यह कतई नहीं है कि उसे पाकिस्तान को सौंप दिया जाए। ऐसा सुझाव देने वाले कौन लोग हैं और वो एमपी पीएससी जैसी अत्यंत महत्वपूर्ण और कठिन परीक्षा के पेपर सेटर कैसे बन जाते हैं? और मान लीजिए कि अगर पेपर सेटर ने त्रुटिवश अथवा इरादतन ऐसी गलती कर दी तो यह माॅडरेटर की जिम्मेदारी है कि उसे वहीं रोक दे। लेकिन उपरोक्त दोनों मामलों में लगता है माॅडरेटर भी काम चलाऊ मानसिकता से काम करते हैं। यानी वास्तव में जिम्मेदारी किसी की नहीं है न आयोजक की, न पेपर सेटर की और न ही माॅडरेटर की।
इन मामलों में बवाल मचने पर अब ‘बलि का बकरा’ ढूंढा जा रहा है। भील समुदाय को लेकर पूछे गए अवांछित प्रश्नपत्र के मामले में की गई कार्रवाई का भी लगता है कि कोई असर नहीं हुआ। यानी आयोग की राम भरोसे गाड़ी जैसी चल रही थी, अब भी चल रही है। दरअसल इलाज तो लापरवाही के मजबूत ढर्रे और समूची व्यवस्था में पोल का होना चाहिए, जो अभी भी होता नहीं दिखाई देता।