शिखंडी…

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धिक्कार है मुझ पर
धिक्कार है मेरे होने पर
शर्मसार हूँ मैं ,
पुरुष होने पर ।

वहशी ,दरिंदा ,नरपिशाच
दो क्षण में हो जाता हूँ ,
भाई ,बेटा ,पिता
नही हो पाता
तुझे विपत्ति में होने पर ।

तेरे आंखों में भय पढ़ नही पाता
तेरा क्रंदन मैं सुन नही पाता ,
ज्ञानी ,बलवान होने का
मात्र दंभ भरता हूँ ,
और चलता हूँ
मुझे क्या पड़ी है कि तर्ज़ पर ।

तुझे आत्मा कांप जाए
ऐसा दर्द दिया जाता है ,
विभत्स तरीके से मार कर
जला दिया जाता है ,
मैं ,हाथ मे मोमबत्ती थामे
नज़रे टिका देता हूँ ,
धृतराष्ट्र सा ,
टिमटिमाती रोशनी पर ।

मुझे तेरी चिता की आग
न दिखाई देती है ,
न उसकी आंच महसूस
होती है ,
मैं निर्रथक पुंसत्व ओढ़े हुए हूँ
पुरुष के वेश में शिखंडी हूँ ,
और जीवित हूँ
तो सिर्फ तेरी क्षमा पर ।

तेरी चिता की राख
क्यो स्वीकारेगी
कृष्णा ,कावेरी ,गंगा
तेरी देह के टपकते रक्त से
है मेरा भी हाथ जो रंगा ।
हो सके तो क्षमा कर
मेरे पौरुष को ,
युगों से खड़ा हूँ ,
जिसकी सीमा पर ।

धैर्यशील येवले इंदौर ।