क्या हार में क्या जीत में’ लिखी तो सुमनजी ने पर अधिसंख्य इसे अटलजी की मानते है…ऐसा क्यों ?

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जयराम शुक्ल

आज राष्ट्रकवि डा.शिवमंगल सिंह सुमनजी की पुण्यतिथि है। सुमनजी, दिनकरजी की तरह ऐसे यशस्वी कवि थे जिनकी हुंकार से राष्ट्रअभिमान की धारा फूटती थी। संसद में अटलजी ने स्वयं की कविता से ज्यादा सुमनजी की कविताएँ उद्धृत की। हाल यह की सुमनजी की कई कविताएँ अब अटलजी के नाम से प्रचलित हैं। अटलजी सुमनजी को अपना साहित्यिक गुरू मानते हैं। वे सुमनजी ही थे जो अटलजी को कविसम्मेलनों तक खींच ले गए। इसीलिए सुमनजी व अटलजी की रचनाधर्मिता में अद्भुत साम्य मिलता है।

सुमनजी लिखते तो अद्भुत थे ही, उससे अच्छा प्रस्तुत करते थे..उनकी भाषणकला बेहतर थी या लेखन कला तय कर पाना मुश्किल। यही विलक्षणता अटलजी के साथ भी जड़ी रही। सुमन जी दिखने में तो शुभ्रवस्त्रावृता थे ही साक्षात् वाणी पुत्र लगते थे। उनकी स्मृति को नमन… यहां वो कविता प्रस्तुत कर रहे हैं जिसे अटलजी ने तेरह दिन की सरकार के पतन के दिन संसद में पढी थी..आज इस कविता को प्रायः लोग अटलजी की ही मानकर चलते हैंं।

संघर्ष पथपर जो मिले

यह हार एक विराम है
जीवन महासंग्राम है
तिल-तिल मिटूँगा पर दया की भीख मैं लूँगा नहीं।
वरदान माँगूँगा नहीं।।

स्‍मृति सुखद प्रहरों के लिए
अपने खंडहरों के लिए
यह जान लो मैं विश्‍व की संपत्ति चाहूँगा नहीं।
वरदान माँगूँगा नहीं।।

क्‍या हार में क्‍या जीत में
किंचित नहीं भयभीत मैं
संधर्ष पथ पर जो मिले यह भी सही वह भी सही।
वरदान माँगूँगा नहीं।।

लघुता न अब मेरी छुओ
तुम हो महान बने रहो
अपने हृदय की वेदना मैं व्‍यर्थ त्‍यागूँगा नहीं।
वरदान माँगूँगा नहीं।।

चाहे हृदय को ताप दो
चाहे मुझे अभिशाप दो
कुछ भी करो कर्तव्‍य पथ से किंतु भागूँगा नहीं।
वरदान माँगूँगा नहीं।।