भारत के पौराणिक और ऐतिहासिक संदर्भों में मकरसंक्रांति की तिथि को लेकर हैं अनेक कहानियां

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लेखक – आनंद शर्मा

कल ही मकरसंक्रांति का त्योहार पूरे भारत में मनाया गया है । सूर्य के उत्तरायण होकर मकर राशि में प्रवेश के इस पर्व को सदियों से पूरे हिंदुस्तान और उससे लगे हुए देशों में विभिन्न नामों से मनाया जाता रहा है । भारत के पौराणिक और ऐतिहासिक संदर्भों में इस तिथि को लेकर अनेक कहानियाँ हैं । इसी तिथि को प्रयागराज में गंगा के तट माघ मेला भरा करता है , जिसमें कभी सम्राट हर्ष अपने ख़ज़ाने सहित अपने राजसी वस्त्रों तक का दान कर देते थे और फिर अपनी बहन राजश्री से माँगे कपड़े पहन कर ही घर जाते थे । महाभारत में भीष्म ने अपनी मृत्यु के लिए शर शैय्या पर इसी दिन का इन्तिज़ार किया था ।

सरकारी नौकरी में भी कई अफ़सर अपनी पदस्थापना के लिये सूर्य के उत्तरायण ( अनुकूल ) होने का इन्तिज़ार करते रहते हैं , ये और बात है कि ऐसे अवसर के प्रतीक्षा कभी कभी लम्बी भी हो जाया करती है । जब मैं ग्वालियर से इंदौर अपर कलेक्टर के पद पर ट्रांसफर होकर आया तो श्री प्रकाश जांगरे पहले से ही अपर कलेक्टर के पद पर थे । यूँ तो कहा तो ये जाता है कि इंदौर जिले में हर अधिकारी अपनी पोस्टिंग चाहता है और कुछ तो इस के लिए जोड़ तोड़ भी लगाने से पीछे नहीं रहते , पर इंदौर में पदस्थ जांगरे साहब के मामले में ये बात लागू नहीं थी |

उनके बच्चे भोपाल में पढ़ रहे थे और भाभीजी भी अपने कामों में कुछ ऐसी मशगूल थीं कि जांगरे साहब को अकेले ही बड़ा मन मार के इंदौर रहना पड़ता था । वे अक्सर प्रयास करा करते थे कि भोपाल (जहाँ सामान्यतः लोग जाना नहीं चाहते) में वापस किसी भी पद पर पदस्थापना हो जाये । तत्समय इंदौर के कलेक्टर श्री राकेश श्रीवास्तव ने भी अपने तईं इस हेतु प्रयास किये पर नतीजा सिफर ही रहा | श्री जांगरे एक सरल ह्रदय व्यक्ति थे और अक्सर दोपहर को भोजनावकाश में हम साथ ही उनके कमरे में बैठते थे । कलेक्ट्रेट में पदस्थ कुछ और साथी भी आ जाते और साथ साथ ही चाय पानी के साथ ये समय गुजरता | एक दिन चाय पीने के दौरान जांगरे साहब कुछ चिंतित दिखे तो मैंने पूछा कि क्या बात है ? तो कहने लगे “यार क्या बताएं आज भोपाल से ख़बर आयी है कि सरकारी मकान ख़ाली करना ही पड़ेगा अब क्या करें कुछ समझ नहीं आ रहा है , ट्रांसफर वापस हो ही नहीं रहा है “।

जांगरे साहब के पास भोपाल में शिवाजी नगर में एक शासकीय मकान था जो बच्चों की पढाई और भाभीजी के अपने काम काज की दृष्टि से सुविधाजनक था , उसे छोड़ना कष्टकर था | श्री जांगरे की इस व्यथा से सभी परिचित थे और बड़े अधिकारी भी कभी कभी इसके मज़े ले लिया करते थे । एक दिन बसन्त प्रताप सिंह , जो उन दिनों इंदौर कमिश्नर थे , ने जांगरे साहब से कहा “प्रकाश तुम एक दिन ट्रक में अपना सामान भर के वल्लभ भवन के सामने से दो चक्कर घुमा दो , देखना तुम्हारा ट्रासंफर तुरंत भोपाल वापस हो जाएगा “| ख़ैर तमाम कोशिशों के बावजूद आखिर जांगरे साहब को सरकारी मकान खाली करना पड़ा और किराए का मकान लेकर सामान शिफ्ट करना पड़ा । चूँकि किराये का मकान छोटा था इसलिए शेष बचे सामान को इंदौर के लिए ट्रक में रवाना किया , और आप यकीन न मानेंगे , जिस दिन सामान ट्रक में भर के रवाना किया और ट्रक आधे रास्ते तक आया , जांगरे साहब को खबर मिली कि उनका ट्रांसफर वापस भोपाल हो गया है | है ना मज़ेदार ? परिहास में कही गयी सिंह साहब की बात सच निकली और इस संयोग के बाद ही जांगरे साहब का सूर्य उत्तरायण हुआ ।