इंदौर। स्वतंत्रता के लिए भारत को बड़ा लंबा संघर्ष करना पड़ा है। इस संघर्ष यात्र में भारत माता के अनगिनत सपूतों ने अपने प्राणों का उत्सर्ग कर शौर्य की एक स्वर्णिम गाथा लिखी। टंट्या भील ऐसे ही एक सिपाही थी, जिन्हें मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के आदिवासी वर्गो में उनकी पूजा की जाती है। यह बात अंतरराष्ट्रीय कवि और वक्ता प्रो.राजीव शर्मा ने मालवांचल यूनिवर्सिटी के इंडेक्स समूह संस्थान के विद्यार्थियों से कहीं। आजादी के अमृत महोत्सव के अंतर्गत आयोजित सेमिनार में स्वतंत्रता का संघर्ष और उसका देशव्यापी स्वरूप टंट्या भील विषय पर संबोधित कर रहे थे।
इस अवसर पर इंडेक्स समूह के चेयरमैन सुरेशसिंह भदौरिया वाइस चेयरमैन मयंकराज सिंह भदौरिया,एडिशनल डायरेक्टर आर सी यादव ने सराहना की। कार्यक्रम में मालवाचंल यूनिवर्सिटी के कुलपति एन के त्रिपाठी ने कहा कि आज सबसे बड़ी जरूरत है कि हम टंट्या भील जैसे आदिवासी जननायकों की वीरता को नई पीढ़ी तक जरूर पहुंचाएं। उनके बलिदान और वीरता की हर कहानी से युवाओं को रूबरू जरूर कराए लेकिन केवल अपनी राजनीति के लिए उन्हें याद न करें। स्वतंत्रता हमें इन महान वीरों की बदौलत ही हासिल हुई है। इस अवसर पर मालवांचल यूनिवर्सिटी के रजिस्ट्रार डॅा.एम क्रिस्टोफर,डीन डॅा.सतीश करंदीकर,प्राचार्या डॅा.रेशमा खुराना,प्राचार्य डॅा.जावेद खान पठान उपस्थित थे।
आदिवासी समाज की स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका
प्रो.राजीव शर्मा ने कहा कि आदिवासी समाज ने अंग्रेजों की शोषण नीति के विरुद्ध आवाज उठाई। गरीब आदिवासियों के लिए मसीहा बनकर उभरे। वह केवल वीरता के लिए ही नहीं, बल्कि सामाजिक कार्यो में भी बढ़-चढ़कर हिस्सा लेने के लिए जाने जाते थे। टंट्या भील को उनके तेजतर्रार तेवरों के चलते कम समय में ही बड़ी पहचान मिल गई थी। उनके विषय में तमाम किंवदंतियां प्रचलित हैं। टंट्या भील का जन्म 1840 में मध्य प्रदेश के खंडवा में हुआ था। उनका असली नाम टंड्रा भील था। उनकी गतिविधियों को देखते हुए अंग्रेजी साहित्यकारों ने उन्हें ‘इंडियन रॉबिन हुड’ कहा था। टंट्या भील की वीरता और अदम्य साहस से प्रभावित होकर तात्या टोपे ने उन्हें गुरिल्ला युद्ध में पारंगत बनाया था। वह भील जनजाति के ऐसे योद्धा थे, जो अंग्रेजों को लूटकर गरीबों की भूख मिटाने का काम करते थे।
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फांसी के बाद अंग्रेजों ने उनके शव को इंदौर के निकट खंडवा रेल मार्ग पर स्थित पातालपानी रेलवे स्टेशन के पास फेंक दिया। इसी जगह को टंट्या की समाधि स्थल माना जाता है। आज भी रेलवे के तमाम लोको पायलट पातालपानी स्टेशन से गुजरते हुए टंट्या को याद करते हैं। इतिहास को भी उन्हें याद करना चाहिए।उन्होंने कहा कि टंट्या भील को मिला सम्मान है कि उन्हें हर कोई मामा के नाम से जानता है। आदिवासी भी आज खुद को मामा कहलाना पसंद करते है और यह उनके लिए एक सम्मान है। टंट्या मामा की वीरता की बदौलत आज आदिवासी समाज के स्वंतत्रता संग्राम के संघर्ष की गाथा दुनिया के सामने आई है। कार्यक्रम डॅा.पूनम तोमर राणा और डॅा.राजेन्द्र सिंह के मार्गदर्शन में हुआ।