लेखक आनंद शर्मा
सच कहूँ तो दिल्ली जाना मुझे कभी भाता नहीं है | अक्सर होने वाले ट्रेफ़िक जाम , इन दिनों अक्सर फैल जाने वाले स्मॉग और मौसम में ठंड और गर्मी के अतिरेक ; भला इन सब के चलते कौन अपनी मर्ज़ी से दिल्ली जाना चाहेगा ? ख़ुशवंत सिंह के लिखे उपन्यास “दिल्ली” को पढ़ के , जिसमें एक नपुंसक पात्र के ज़रिए ख़ुशवंत सिंह ने बड़ा दिलचस्प कथानक रचा था , मुझे तब भी ये समझ नहीं आया था कि भला किस कारण से लेखक को दिल्ली से इतना सम्मोहन हो सकता है | ज़ौक़ के शेर को भी याद कीजिए ,
“इन दिनों गरचे दकन में है बड़ी क़दरे सुख़न |
कौन जाये ज़ौक़ पर दिल्ली की गलियाँ छोड़ कर ॥”
ये उन्होंने दिल्ली के उस काल खंड में लिखा था जबकि नादिर शाह और अब्दाली के हमलों से दिल्ली की हुकूमत हलाकन थी और लखनऊ और दक्कन के हैदराबाद में नयी ताक़तें अपने पैर जमा रही थीं , तो ना जाने किन कारणों से ज़ौक़ दिल्ली की मुहब्बत के गिरफ़्त में थे । लेकिन सरकारी मुलाजिम होने के नाते आप इसे कितना ही नापसंद करो , दिल्ली शासकीय कामों से जाना ही पड़ता है कभी न्यायालय सम्बन्धी तो कभी मीटिंग | इन सबसे परे यदि अपनी मर्ज़ी से दिल्ली जाने का अवसर आए तो मेरी राय में दिल्ली जाने का सबसे मुफ़ीद समय है , नवम्बर और फ़रवरी के महीने | दिल्ली का मौसम इन महीनों जैसा ख़ुशगवार फिर और कभी नहीं रहता और यदि आप फ़रवरी के माह में दिल्ली जा रहे हैं तो राष्ट्रपति भवन , जो कभी वायसराय हाउस के नाम से जाना जाता था में स्थित मुग़ल गार्डन को देखने का मौक़ा मिल सकता है ।
सन 1911 में दिल्ली दरबार के इस फ़ैसले के बाद कि राजधानी कलकत्ता से दिल्ली लायी जाए वायसराय के लिए एक नया भवन बनना शुरू हुआ | रायसीना पहाड़ी पर चार सौ एकड़ का क्षेत्र सुरक्षित किया गया और इंग्लेण्ड से प्रसिद्ध आर्किटेक्ट लुटियंस को इसके निर्माण के लिए बुलाया गया | बीस वर्षों में ये बन कर तैय्यार हुआ और सन 1931 में इसका उदघाटन हुआ | कहते हैं लेडी हार्डिंग ने लुटियंस से कहा था कि इससे लगा हुआ एक ख़ूबसूरत बग़ीचा भी बने जो कश्मीर और आगरे में स्थित मुग़ल गार्डन जैसा ही सुंदर हो । लिहाज़ा राष्ट्रपति भवन से सटे 15 एकड़ क्षेत्र में विलियम मस्टो की देखरेख में तक़रीबन 1929 में ये बन कर तैय्यार हुआ | चार बाग़ की तर्ज़ पर बने इस बेहद सुंदर गार्डन में मुग़ल और इंग्लिश दोनों आर्किटेक्ट का सुंदर प्रयोग किया गया है | औषधीय पौधों से लेकर ट्युलिप तक अनेक पुष्पों से सज़ा ये बग़ीचा दरअसल अपने गुलाबों के लिए मशहूर है जो संयोग से इन्हीं महीनों में खिलते हैं |
नौकरी के शुरुआती दौर में , जब दिल्ली जाना होता तो म प्र भवन और मध्यांचल (जो अब छत्तीसगढ़ भवन के रूप में जाना जाता है ) से रुकने की ताकीद करने पर एक ही जवाब मिलता जगह नहीं है , एन ओ सी ले लो । एन ओ सी लेने पर आप दिल्ली की किसी निजी होटल में रुक कर उसका किराया टी ए बिल में क्लेम कर सकते थे , पर ये किराया भी भारी पड़ता था । ऐसे में किसी जानकार मित्र ने कहा की एन व्ही डी ए के गेस्ट हाउस में कोशिश करने पर जगह मिल जाती है । मैंने अगली बार यही रास्ता आज़माया और सचमुच सस्ता , सुलभ और साफ़ सुथरा कमरा मिल गया । काम निपटा के आराम से सोए , सुबह उठ कर बेल बजाई तो ख़ानसामा का सहायक हाज़िर हो गया । मैंने चाय की दरयाफ़्त की तो उसने पूछा सरकरी या ग़ैर सरकरी । मैंने सोचा रिज़र्वेशन तो नर्मदा विभाग के दोस्तों से बोल करा लिया है पर चाय और खाने का पैसा तो खुद देना चाहिए , लिहाज़ा मैंने कहा ग़ैर-सरकारी । थोड़ी देर बाद चाय आयी तो पहले ही घूँट पर पाया की ये तो फीकी चाय ले आया , मैंने बटलर से कहा भाई शक्कर क्यों नहीं डाली ? वो बोला मैंने तो पूछा था सरकरी या ग़ैर-सरकरी आपने ही कहा था ग़ैर-सरकरी तब मुझे समझ आया की सरकरी से तात्पर्य शक्कर से था सरकारी से नहीं ।