चाणक्य ने अपनी नीति में बच्चों के पालन-पोषण को लेकर बार-बार इस बात पर बेहद अधिक बल दिया है कि माता-पिता को चाहिए कि वे अपनी संतान को गुणवान और चरित्रवान बनाएं, उनका ख़याल रखें और उन्हें बिगड़ने न दें। उन्हें गलत संगति से बचाकर रखें। चाणक्य कहते हैं कि व्यक्ति को चाहिए कि वह अपना समय सार्थक बनाए, अच्छा कार्य करे। इसके साथ ही उनका कहना है कि सब लोगों को अपना कार्य अर्थात कर्तव्य पूरा करना चाहिए।और अपने कर्तव्य के प्रति पूरी निष्ठा से कर्म करता रहें।
पुत्राश्च विविधैः शीलैर्नियोज्याः सततं बुधैः।
नीतिज्ञाः शीलसम्पन्ना भवन्ति कुलपूजिताः।।
चाणक्य नीति के दूसरे पाठ अध्याय के दसवें श्लोक में लिखा है कि बुद्धिमान लोगों को चाहिए कि वह अपने पुत्र और पुत्रियों को अनेक प्रकार के अच्छे गुणों से लाना पालन करें। उन्हें अच्छे कार्यों में लगाएं, क्योंकि नीति जानने वाले और अच्छे गुणों से युक्त सज्जन व्यवहार वाले व्यक्ति ही कुल में पूजनीय और सम्मान के पात्र होते हैं।
चाणक्य कहते हैं कि बचपन में बच्चों को जैसी शिक्षा जैसी परवरिश दी जाएगी, उनके जीवन का विकास और उन्नति उसी प्रकार से होंगे, इसलिए माता-पिता का कर्तव्य है कि वे उन्हें ऐसे मार्ग पर लेकर जाएं, जिससे उनमें चातुर्य के साथ-साथ शील व्यवहार का भी विकास हो। गुणी व्यक्तियों से ही कुल की शोभा होती है।
माता शत्रु पिता वैरी येन बालो न पाठितः।
न शोभते सभामध्ये हंसमध्ये बको यथा।।
वहीं ग्यारहवें श्लोक में लिखा है कि वे माता-पिता अपने बच्चों के शत्रु हैं, जिन्होंने बच्चों को पढ़ाया-लिखाया नहीं, क्योंकि अनपढ़ बालक विद्वानों के समूह में शोभा नहीं पाता, उसका सदैव अपमान होता है। विद्वानों के इस झुण्ड में उसका तिरस्कार उसी प्रकार होता है जैसे हंसों के झुंड में बगुले की स्थिति होती है।
मात्र मनुष्य जन्म लेने से ही कोई चतुर नहीं हो जाता। उसके लिए अध्ययनशील होना अत्यन्त आवश्यक है। शक्ल-सूरत, आकार-प्रकार तो समस्त व्यक्ति का एक जैसा होता है, भिन्नता सिर्फ उनकी विद्या से ही प्रकट होती है। जिस प्रकार सफेद बगुला सफेद हंसों में बैठकर हंस नहीं बन सकता, उसी प्रकार विद्याहीन और अशिक्षित व्यक्ति साक्षर और शिक्षित व्यक्तियों के बीच में बैठकर शोभा नहीं पा सकता। इसलिए माता-पिता का कर्तव्य है कि वे बच्चों को ऐसी शिक्षा दें, जिससे वे समाज की शोभा बन सकें।
लालनाद् बहवो दोषास्ताडनाद् बहवो गुणाः।
तस्मात्पुत्रं च शिष्यं च ताडयेन्न तु लालयेत्।।
बारहवें श्लोक में लिखा है कि लाड़-दुलार से पुत्रों में बहुत से दोष उत्पन्न हो जाते हैं। उनकी ताड़ना करने से अर्थात दंड देने से उनमें गुणों का विकास होता है, इसलिए पुत्रों और शिष्यों को अधिक लाड़-दुलार नहीं करना चाहिए, उन्हें समय समय पर फटकार लगाने से भी नहीं चूकना चाहिए।
एकेनापि सुवृक्षेण पुष्पितेन सुगन्धिना।
वासितं तद्वनं सर्वं सुपुत्रेण कुलं यथा।।
चाणक्य की नीति के अनुसार, बहुत से लोगों के कई संतानें होती हैं, लेकिन उनकी बहुसंख्या के कारण कूल का सम्मान नहीं बढ़ता. कुल का सम्मान बढ़ाने से लिए एक सद्गुणी पुत्र ही पर्याप्त होता है. धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों में से एक भी ऐसा नहीं निकला जिसे सम्मान से याद किया जाता हो. ऐसे सौ पुत्रों से क्या लाभ. आचार्य चाणक्य आगे कहते हैं कि जिस प्रकार एक सुखे पेड़ में आग लगने से सारा जंगल भस्म हो जाता है, उसी तरह एक मुर्ख और कुपुत्र सारे कुल को समाप्त कर देता है. कुल की प्रतिष्ठा, आदर-सम्मान आदि सब धूल में मिल जाते हैं. जैसे दुर्योधन के कारण से कौरवों का नाश हुआ.