एन के त्रिपाठी
सुप्रीम कोर्ट (Supreme court) ने अपने ताजा फैसले में एससी (SC) और एसटी (ST) श्रेणियों के तृतीय और चतुर्थ वर्ग के कर्मचारियों की पारी से पहले पदोन्नति की अनुमति देने से इनकार कर दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने इस बात पर जोर दिया है कि सरकारों को इस तरह के किसी भी कदम से पहले सेवाओं में इन श्रेणियों के कर्मचारियों की इन वर्गों में वर्तमान स्थिति के आंकड़े सामने लाने चाहिए। सरकार की पदोन्नति योजना पर कोर्ट के स्टे के कारण नियमित पदोन्नति पांच साल से अधिक समय से रुकी हुई है जिससे प्रशासकीय दिक्कतें आ रही हैं।
शासकीय सेवाओं, शैक्षणिक संस्थानों और विधायिकाओं में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति को आरक्षण प्रदान करने के लिए भारत के लोगों में लगभग पूर्ण सहमति थी और आज भी है। लोगों की यह भावना दलितों और आदिवासियों के सामाजिक और आर्थिक पिछड़ेपन और उनकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के कारण है। इसी भावना से संविधान सभा ने दलितों और आदिवासियों को सेवाओं, शैक्षणिक संस्थानों और विधायिका में आरक्षण प्रदान किया।
संविधान सभा में कांग्रेसियों का दबदबा था और उन्होंने स्वाभाविक रूप से अगले तीन दशकों तक आरक्षण के कारण इनके समर्थन का लाभ उठाया। धीरे-धीरे विभिन्न रंगों के राजनेताओं ने आरक्षण का उपयोग और विस्तार करने की कला सीखी और ऐसा सबसे बड़ा कदम वीपी सिंह ने ओबीसी के लिए 27% आरक्षण के मंडल आयोग की सिफारिशों को स्वीकार करके उठाया।
इस आरक्षण नीति से कई राजनीतिक दलों को फायदा हुआ, खासकर हिंदी भाषी इलाकों में। मजबूत ओबीसी नेतृत्व न केवल सामाजिक न्याय की तथाकथित पार्टियों में बल्कि धीरे-धीरे सभी पार्टियों में उदित हो गया। यहीं अंत नहीं था। राजनेताओं में अन्य जातियों के अधिक से अधिक समूहों को ओबीसी में शामिल करने के लिए उन्माद उत्पन्न हो गया , भले ही सामान्य ज्ञान से इसका औचित्य कुछ न हो।
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मराठों के लिए आरक्षण की मांग इस संबंध में एक संकेत है। बढ़ती बेरोजगारी ने आरक्षण की मांग को और बढ़ा दिया है और राजनेता इस पर खेल करते रहते हैं।किसी से भी पीछे न रह जाने के लिए राजनेताओं ने सामान्य वर्ग के आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों के लिए 10% कोटा देकर सवर्णों को भी शांत किया है। आरक्षण के दायरे को बढ़ाने की प्रक्रिया अभी भी समाप्त नहीं हुई है और राजनेता नई मांगों को लेकर हमेशा नवाचार सोचते रहते हैं । उनकी नजर निजी उद्यमों पर भी टिकी है।
सेवाओं में वर्ग तीन और चार के दलित और आदिवासी कर्मचारियों की बड़ी संख्या का समर्थन प्राप्त करने के लिए, विभिन्न सरकारें ऐसे कर्मचारियों को बिना किसी ऐसे आंकड़ों के कि इन का प्रतिनिधित्व विभिन्न स्तरों पर कम है, उन्हें पदोन्नति देने के विचार के साथ सामने आई हैं। सुप्रीम कोर्ट ने यही इशारा किया है। दूसरी तरफ़ राजनेताओं के दृष्टिकोण को एमपी के मुख्यमंत्री के ‘कोई माई का लाल–‘ के शब्दों में देखा जा सकता है।
डॉक्टर बीआर अम्बेडकर अपने समय के सबसे महान बुद्धिजीवियों और मानवतावादियों में से एक थे। वे दृढ़ता से समानता में विश्वास करते थे, लेकिन एक ऐसी समानता जो महिलाओं सहित समाज के कमजोर वर्गों के उत्थान की अनुमति देती हो। वे भारत के संविधान के मुख्य रचयिता थे। उनके मार्गदर्शन में संविधान सभा ने आरक्षण की नीति का मसौदा तैयार किया लेकिन एक कंडिका रखी “आरक्षण दस साल के लिए होगा और इसअवधि के अंत में स्थिति पर पुनर्विचार किया जाएगा”।
लोकसभा के पूर्व महासचिव सुभाष कश्यप, जिनके पास डॉ अम्बेडकर तक पहुंच थी, का दावा है कि ‘उन्होंने कहा था कि 10 साल बहुत कम अवधि है और यह 40 साल होनी चाहिए, लेकिन उसके बाद संसद को कानून द्वारा आरक्षण बढ़ाने की कोई शक्ति नहीं होनी चाहिए।वे आरक्षण को हमेशा के लिए लागू रखने के विरुद्ध थे।’ आरक्षण का उद्देश्य सरकार के सभी स्तरों पर दलितों को प्रशासन में लाना था।
इसके साथ ही सरकारों को इन लोगों के स्तर को उस स्तर तक बढ़ाने के लिए गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और आर्थिक लाभ प्रदान करने की सकारात्मक कार्रवाई करनी थी जिससे वे समाज के सभी वर्गों के साथ समान प्रतिस्पर्धा में खड़े हो सकें। लेकिन दुख की बात है कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति को सहायता प्रदान करने की सरकारी योजनाओं का कोई वास्तविक लाभ नहीं हुआ है। इन वर्गों में एक नए वंशानुगत अभिजात वर्ग को जन्म देने के अलावा, दलितों और आदिवासियों की विशाल जनसंख्या के जीवन स्तर में कोई विशेष अन्तर नहीं आया है।