सबके अपने युद्ध अकेले

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पी नरहरि की एक कविता

सबके अपने युद्ध अकेले,
और स्वयं ही
लड़ने पड़ते,
सहने पड़ते,
कहने पड़ते,
करने पड़ते,
वह सब कुछ भी,
जो न चाहे कभी अन्यथा।

कल कल जल भी जीवट होकर,
ठेल ठेल कर, काट काट कर,
पाषाणों को सतत, निरन्तर,
तटबन्धों को तार तार कर,
अपनी गति में, अपनी मति में,
जूझा भिड़ता, निर्मम क्षति में,
लय अपनी वह पा लेता है, मार्ग हुये जब रूद्ध अकेले,
सबके अपने युद्ध अकेले।

प्रस्तुत सब सुविधायें सम्मुख,
प्राप्य परिधिगत, आकंठित सुख,
फिर भी लगता छूटा छूटा,
नहीं व्यवस्थित, टूटा टूटा,
प्रश्नों के निर्बाध सृजन में
भीतर बाहर बीहड़ वन में,
उत्तर के उत्कर्ष ढूँढते, फिरते रहते बुद्ध अकेले।
सबके अपने युद्ध अकेले।

क्या जाने, क्या चुभ जाये मन,
किन अंगों से फूटे क्रंदन,
चित्त धरा क्या, मन की ठानी,
रिस रिस बहती कौन कहानी,
सामर्थ्यों को लाँघे जाता,
लघुता को अभिमान दिलाता,
बीस बरस तक पत्थर तोड़े, दशरथ माँझी क्रुद्ध अकेले।
सबके अपने युद्ध अकेले।

कहने को तो जगत वृहद है,
परिचित पंथी, साथ सुखद है,
दिन ढलता जब, रात अवतरित,
भाषा निर्बल, शब्द संकुचित,
मन के संग रहना पड़ता है,
अपने को सहना पड़ता है,
काम क्रोध ईर्ष्या मद नद में , होना सबको शुद्ध अकेले।
सबके अपने युद्ध अकेले।

Source: Anonymous