कबीर जयंती के अवसर पर- कबीर का काव्य सौष्ठव एवं योगदान

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By Shivani RathorePublished On: June 24, 2021
kabir das

एन के त्रिपाठी

कबीर की कविता भाषा, छन्द एवं कला की दृष्टि से कोई बहुत उच्च श्रेणी की नहीं है लेकिन उनकी बेबाक़ और दबंग शैली ने उन्हें हिंदी साहित्य में एक अनूठा स्थान दे दिया है। यद्यपि उनके काव्य के कई आयाम है परंतु समाज सुधारक के रूप में उनकी उक्तियाँ निराली है।सामाजिक कुरीतियों और विशेष रूप से अंधविश्वासों पर जैसा करारा प्रहार उन्होंने किया है वह संभवतया विश्व साहित्य में मिलना दूभर है। उन्होंने हिंदू समाज की पूजा पद्धति और कर्मकांड पर तीखा व्यंग्य किया है। इसी के साथ पंद्रहवीं शताब्दी में अपने को शासक मानने वाले मुसलमानों के आडंबरों पर भी ज़बरदस्त चोट की है।उनका अक्खड़पन देखिये:-

कबीर जयंती के अवसर पर- कबीर का काव्य सौष्ठव एवं योगदान

“कबीरा खड़ा बाजार में, लिए लुकाठी हाथ
जो घर फूंके आपनौ, चले हमारे साथ”

श्री टिपानिया जी ने ठेठ मालवी रंग मे कबीर के रहस्यवाद को गा कर समझाया। आत्मा की स्वस्फूर्ति से परमात्मा का साक्षात्कार करने का प्रयास रहस्यवाद है। कबीर ने जीवात्मा-परमात्मा के प्रेम का सरल वर्णन किया है। उनके साधारण परन्तु सशक्त प्रतीक उनके आध्यात्मिक प्रेम को व्यक्त करते हैं। इसी आध्यात्मिक तन्मयता से उनका निर्गुण दर्शन प्रवाहित हुआ है।

कबीर ने कहा था ‘ पानी केरा बुदबुदा इस मानुस की जात’। एक अन्य उपमा मे दीपक की ज्योति समाप्त होते ही शरीर का मिट्टी हो जाना निरूपित किया। श्री टिपानिया जी ने सुनाया:-

‘भरयो सिन्दड़ा में तेल,
जहाँ से रच्यो है सब खेल,
जल रही दिया की बाती
ओ जल रही दिया की बाती,
हो जैसे ओस रा मोती,
झोंका पवन का लग जाए,
झपका पवन का लग जाए,
काया धूल हो जासी ।’

अपने अनूठे काव्य सौष्ठव के कारण कबीर हिन्दी साहित्य में तुलसीदासदास और सूरदास के बाद सर्वाधिक प्रतिभाशाली कवि है। कबीर आज भी सामयिक है। समस्त मानवों की बराबरी का सिद्धान्त और सभी सम्प्रदायों के आडम्बरों से ऊपर उठ कर एक ईश्वर की सत्ता मे विश्वास कबीर का मौलिक योगदान है।