बंगाल में मां काली के जन्म दिवस के रूप में मनाई जाती है रूप चतुर्दशी

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By Pinal PatidarPublished On: October 23, 2022
maa kali

रविवारीय गपशप – आनंद शर्मा

आज रूप चतुर्दशी है और कल दीपावली का त्योहार की धूम है । रूप चतुर्दशी को पश्चिम बँगाल में माँ काली के जन्म दिवस के रूप में मनाया जाता है । कहते हैं , आज के ही दिन दानव रक्तबीज का वध करने के लिए महाकाली ने अवतार लेकर कर सृष्टि को उसके अत्याचार से मुक्ति दिलायी थी । आज का दिन नरक चौदस के नाम से भी जाना जाता है । पौराणिक कथाओं के अनुसार नरकासुर की लम्बी उम्र के लिए उसकी माँ भूदेवी ने यह वरदान माँगा था कि उसकी मृत्यु उसकी माँ भूदेवी से ही हो सकेगी । भला कौन माँ अपने बेटे को मारेगी तो यह एक तरह से अमरत्व का वर था । बलशाली नरक ने लम्बे समय तक प्रागज्योतिष्पुर , जिसे कामरूप भी कहते हैं , का राज्य भोगा । ‘

नारक में बाणासुर की संगत से तामसिक प्रवृत्ति की अधिकता हो गई और उसका स्वभाव अत्याचारी हो गया , बलशाली तो वो था ही , तो संपूर्ण भू मण्डल के राजाओं को उसने जीता और उनकी सोलह हज़ार एक सौ पुत्रियों को अपने अधीन विजित संपत्ति के सदृश रख लिया । यहाँ तक कि उसने स्वर्ग लोक पर अधिकार कर इन्द्र को भागने पर मजबूर कर दिया । जब भू देवी सत्यभामा के रूप में अवतरित हुईं और उन्हें पता लगा कि हज़ारों स्त्रियों नरकासुर के अत्याचार से पीड़ित हैं ,तो उन्होंने श्री कृष्ण से उनकी मुक्ति का अनुरोध किया । कहते हैं कृष्ण इस वरदान की बात को जानते थे इसलिए युद्ध के दौरान जब नारकासुर समक्ष हुआ तो उन्होंने सत्यभामा से कहा कि वे उनके सुदर्शन चक्र से उसका संहार करें ।

aanand sharma

नारकासुर की मृत्यु के पश्चात स्वतंत्र हुई सोलह हज़ार एक सौ स्त्रियों की सामाजिक प्रतिष्ठा के पुनर्स्थापन के लिए स्वयं वासुदेव ने उनका वरण किया । कहते हैं मरने के पूर्व नारकासुर ने सत्यभामा से यह प्रार्थना की थी कि उसकी मृत्यु के दिन को जश्न की तरह मनाया जाये , और इसी वजह से आज का दिन लोग छोटी दिवाली के रूप में भी मनाते हैं । भारतीय पौराणिक साहित्य में इतनी विविधता भरी , रोचक और रोमांचक कहानियों का भण्डार है कि पश्चिमी में रची बैट मेन और सुपर मेन की कहानियाँ इनके पैरों की धूल सदृश हैं ।

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इस बार दिवाली पर लगातार सरकारी छुट्टियाँ भी हैं यानी परिवार, और दोस्तों से मेल-मुलाक़ात के लिए ढेर सारा वक्त । आम लोगों की तरह सरकारी अधिकारी भी दिवाली का त्योहार बड़े उत्साह से मानते हैं, फ़र्क़ बस ये है कि नौकरी की ज़िम्मेदारी के चलते अपने पैतृक घर में इसे मनाने का मौक़ा बहुत कम आ पाता है , लेकिन सरकारी नौकरी में अनेक जगहों में पदस्थ रहने के कारण कई ऐसी परम्पराओं से परिचय होता है जो हम अपने स्थायी निवास पर ही बने रहते तो न जान पाते । छत्तीसग़ढ़ में पदस्थापना के दौरान पता चला कि पटकने वाले बम भी होते हैं जो हाथ से लेकर ज़मीन में ज़ोर से पटकने पर बड़ी आवाज़ करते हैं । राजगढ़ में इस त्योहार के समय नेवज नदी में चुनरी चढ़ाते हैं , और उज्जैन में महाकाल मंदिर में सबसे पहले गर्भ-गृह में जाकर ज्योतिर्लिंग के समक्ष फुलझड़ी जलाते हैं ।

मैं सीहोर ज़िले में मुख्यालय में अनुविभागीय अधिकारी था और अपर कलेक्टर थे श्री अरुण तिवारी । सीहोर में ही ग्रामीण विकास विभाग के एस.डी.ओ. थे श्री पी०एस तोमर जो हम दोनों के ही मित्र थे और हम तीनों की बहुत बनती थी । दिवाली के दूसरे दिन की बात है, शाम को तोमर साहब के यहाँ जब हम तीनों मिले तो तिवारी जी ने कहा कि आज दिवाली है, आज तो रमी खेलना चाहिए । तोमर साहब के पड़ोस में कृषि विभाग के उपसंचालक रहा करते थे। तोमर ने सुझाव दिया कि क्यूँ ना उन्हें भी शामिल कर लिया जाए ? हमने सहमति जताई तो तोमर साहब ने फ़ोन लगाया और उनसे पूछा कि क्यूँ भई, दिवाली मनाते हो ? उन्होंने कहाँ क्यों नहीं ।

तोमर साहब ने कहा, तो फिर आ जाओ, हम लोग आपका इंतज़ार कर रहे हैं । थोड़ी देर बाद डी.डी.ए. साहब लुंगी पहनकर पधारे तो मैंने तिवारी जी से फुसफुसा कर कहा “सर, ये तो लुंगी बानियान में पधार गए हैं, रुपय पैसे तो लाए नहीं, रमी कैसे खेलेंगे ?” तोमर साहब ने ताश की गड्डी सामने रखी तो वो सज्जन कुछ सकपकाए, कहने लगे, कि मुझे ताश खेलना तो आता ही नहीं है। तोमर साहब ने कहा, अरे मैंने पूछा तो था कि  दिवाली मनाते हो या नहीं ? डी०डी०ए साहब बोले, भय्या मैं तो समझा था कुछ दारू-शारू का प्रोग्राम होगा। हम लोग खूब हंसे, दारू हम में से कोई पीता  नहीं था, और ताश वो खेलते नहीं थे, लिहाज़ा हमारी दिवाली बिना सेलब्रेशन के ही समाप्त हो गयी ।

हंसी-ख़ुशी के इन प्रसंगों के साथ ही आप सबको दीपावली की अनेक शुभकामनायें ।।