भारत में चुनावी प्रक्रिया को लेकर एक नई चर्चा शुरू हो गई है। संसद के शीतकालीन सत्र के 17वें दिन, 12 दिसंबर को केंद्रीय कैबिनेट द्वारा मंजूरी मिलने के बाद, सरकार ने लोकसभा में ‘एक राष्ट्र-एक चुनाव’ विधेयक पेश किया। केंद्रीय कानून मंत्री अर्जुन राम मेघवाल ने इस विधेयक को 129वें संविधान संशोधन विधेयक के रूप में पेश किया।
बिल पेश होने के बाद सदन में सांसदों को इस पर अपनी राय रखने का मौका दिया गया। कई राजनीतिक दलों द्वारा इस विधेयक पर आपत्ति जताए जाने के बाद, विधेयक को दोबारा पेश करने के लिए वोटिंग हुई। इस वोटिंग में 269 सांसदों ने विधेयक के पक्ष में वोट किया, जबकि 198 सांसदों ने इसके विरोध में वोट डाले। इसके बाद विधेयक को संसद में पेश किया गया।
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केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने सदन में कहा कि जब यह बिल केंद्रीय कैबिनेट में आया था, तब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस बात पर जोर दिया था कि इसे एक संयुक्त संसदीय समिति (JPC) को भेजा जाए। इसके बाद कानून मंत्री ने इस पर प्रस्ताव पेश करने की बात की थी।
क्या है ‘एक राष्ट्र-एक चुनाव’ विधेयक?
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इस विधेयक का उद्देश्य यह है कि भारत में लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ, निश्चित समय पर, एक ही दिन आयोजित किए जाएं। सरकार का मानना है कि इससे चुनावी खर्च में कमी आएगी और प्रशासनिक दक्षता में सुधार होगा। साथ ही, यह विधेयक सरकार द्वारा एक स्थिर चुनावी प्रक्रिया सुनिश्चित करने के लिए पेश किया गया है, जिसमें एक साथ होने वाले चुनावों से संसदीय और राज्य विधानसभाओं का कार्यकाल एक जैसे रहेगा।
विपक्ष क्यों कर रहा हैं विरोध
विपक्षी दलों ने इस विधेयक का विरोध किया है। कांग्रेस, समाजवादी पार्टी (एसपी), तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) सहित अन्य विपक्षी दल इसे अनावश्यक और असल मुद्दों से ध्यान भटकाने वाला विधेयक मानते हैं। उनका कहना है कि यह लोकतंत्र की मूल संरचना को कमजोर कर सकता है, क्योंकि इससे सत्ताधारी पार्टी के लिए निरंकुश होने का खतरा बढ़ सकता है। विपक्ष का यह भी कहना है कि एक साथ चुनाव होने पर जवाबदेही में कमी आ सकती है, क्योंकि सरकार को लगातार जनमत की कसौटी पर नहीं परखा जाएगा।
क्या हैं सत्ताधारी पक्ष का तर्क
सरकार का कहना है कि ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ विधेयक से चुनावी खर्च में बड़ी कमी आएगी, जो वर्तमान में हर राज्य और लोकसभा चुनाव के साथ जुड़ा रहता है। साथ ही, सरकार का यह भी तर्क है कि इससे मतदान प्रतिशत में वृद्धि हो सकती है, क्योंकि लोग एक ही दिन में सभी चुनावों में हिस्सा लेंगे। इसके अलावा, सरकार का यह भी कहना है कि इससे विकास कार्यों पर कोई नकारात्मक असर नहीं पड़ेगा, क्योंकि चुनाव की प्रक्रिया केवल एक बार लागू होगी और विकास कार्यों के लिए स्थिरता बनी रहेगी।
क्या हैं रामनाथ कोविंद समिति की सिफारिशें
इस विधेयक के पीछे रामनाथ कोविंद समिति की सिफारिशों का भी बड़ा हाथ है। इस समिति ने अपनी रिपोर्ट में कुछ महत्वपूर्ण कदमों की सिफारिश की है:
- सभी राज्य विधानसभाओं का कार्यकाल 2029 तक बढ़ा दिया जाए ताकि लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ हो सकें।
- त्रिशंकु विधानसभा (जब किसी पार्टी को स्पष्ट बहुमत न मिले) और अविश्वास प्रस्ताव की स्थिति में नए चुनाव कराए जाएं।
- पहले चरण में लोकसभा और राज्य विधानसभा चुनाव एक साथ आयोजित किए जाएं, और दूसरे चरण में 100 दिन के अंदर स्थानीय निकायों के चुनाव किए जाएं।
- चुनाव आयोग को एकल मतदाता सूची तैयार करने का निर्देश दिया जाए, ताकि चुनावों में एकजुटता और पारदर्शिता बनी रहे।
NDA सहयोगियों का समर्थन और विपक्ष का विरोध
एनडीए (नेशनल डेमोक्रेटिक अलायंस) के सहयोगी दल इस विधेयक के समर्थन में हैं और सरकार के साथ खड़े नजर आ रहे हैं। हालांकि, विपक्षी दलों का कहना है कि यह विधेयक भारतीय लोकतंत्र के सिद्धांतों के खिलाफ है और असल मुद्दों से ध्यान हटाने का प्रयास है। विपक्ष ने इस पर गहरी चिंता जताई है और इस विधेयक के आगे बढ़ने से पहले व्यापक चर्चा की मांग की है।