प्रोफ़ेसर विवेक कुमार
जो लिख रहे हैं कि “यादव, कुर्मी, शाक्य, लोधी को आरक्षण का “संख्या से अधिक” लाभ मिल रहा है (संदर्भ-अभय कुमार दुबे का 3 अगस्त, 2021 को दैनिक भास्कर में छपा आलेख), इसलिए उनको जाति जनगणना का समर्थन नहीं करना चाहिए, उनकी फीस वैज्ञानिक आकलन एवं पद्धति शास्त्र में माफ़ लगती है, या उन्होंने इसकी कभी पढ़ाई ही नहीं की है।
![जाति: गिनने और न गिनने का द्वंद्व तथा पद्धति शास्त्र 4](https://ghamasan.com/wp-content/uploads/2021/08/e21bc479-3b44-42fa-9dd2-d0e75e143b1b.jpg)
प्रतिनिधित्व या आरक्षण का वैज्ञानिक एवं पद्धति शास्त्र अलग होता है। इसका आकलन ‘indicies’ (इंडीसीस) पर किया जाना चाहिए। अर्थात एक हजार या एक लाख आबादी पर कितने लोग शिक्षित हैं और उनमें से कितने लोगों को प्रतिनिधित्व मिला है। वैज्ञानिक एवं पद्धति शास्त्र के आधार पर यह आसानी से स्पष्ट हो जाएगा कि एक जाति की कितनी आबादी है और उसमें से कितने लोगों को प्रतिनिधित्व मिला है या मिल रहा है।
अगर किसी जाति की संख्या लाखों में है और किसी जाति की संख्या हजारों में तो यह स्वाभाविक ही है कि लाखों की जनसँख्या वाली जाति के लोगों में प्रतिनिधित्व ज्यादा ही लगेगा। परन्तु जब आप आरक्षण की गणना प्रति हजार पर करेंगे तो इंडीसीस लगभग एक जैसा ही आएगा। जो लोग प्रतिनिधित्व/आरक्षण का आकलन जाति की संख्या बल के आधार पर कर रहे हैं उनको प्रतिनिधित्व आरक्षण के दर्शन के बारे में भी कुछ ज्ञान नहीं लगता, क्योंकि प्रतिनिधित्व (आरक्षण) सामाजिक न्याय पर आधारित है।
यद्यपि यह जाति की सामूहिक अस्मिता पर आधारित है परंतु इसका लाभ जाति में रह रहे व्यक्ति को एकांगी रूप में प्राप्त होता है. अर्थात अगर जाति में किसी एक व्यक्ति को प्रतिनिधित्व (आरक्षण) का लाभ मिल गया है तो इसका तात्पर्य यह नहीं कि उसके पूरे नाते-रिश्तेदारों या उसकी पूरी जाति को ही उसका लाभ मिल गया है।
प्रतिनिधित्व (आरक्षण) पूरे वंचित समाज को सामाजिक न्याय के प्रति आशान्वित करता है जिससे उनके अंदर क्रांतिकारी बदलाव की सोच ना विकसित हो और वे संवैधानिक मार्ग पर चलकर उसमें प्रदत अधिकारों के आधार पर ही अपनी वंचना को दूर कर सकें। इसलिए प्रतिनिधित्व (आरक्षण) समाज में विघटन होने से भी बचाता है।
अतः प्रतिनिधित्व (आरक्षण) वंचित समाज, जिनको जातीय अस्मिता के आधार पर हजारों हजार वर्षों से जीवन के हर क्षेत्र में यथा-आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, शैक्षणिक, व्यवसायिक, आवासीय आदि आधार पर बहिष्कृत किया गया, उन समाजों को उनकी जनसंख्या के अनुपात में सत्ता, शिक्षा, संसाधन, उत्पादन, आदि संस्थाओं में प्रतिनिधित्व देकर राष्ट्र एवं प्रजातंत्र को मजबूत करने की एक प्रक्रिया है।सारांश में जाति जनगणना एवं प्रतिनिधित्व (आरक्षण ) परस्पर विरोधी नहीं बल्कि परस्पर पूरक हैं।
(प्रोफेसर विवेक कुमार, लेखक जवाहरलाल नेहरू स्थित समाजशास्त्र विभाग में प्रोफेसर हैं. यह विचार व्यक्तिगत हैं )