मुकेश माथुर
‘वो बाहर कैजुअल्टी में कोई मरने की हालत में रहा, तो उसे फॉर्म भरना जरूरी है क्या?’ मुन्नाभाई के इस सवाल की तरह ही एक सवाल- ‘मेरे देश में एक दिन में सात सौ लोग मर रहे हैं। 76 देशों को टीका भेजना जरूरी है क्या?’
वसुधैव कुटुम्बकम की पवित्र भावना के बीच अब कोविड की ज्यादा जानलेवा नई लहर में उपरोक्त सवाल पूछना अपराध नहीं होना चाहिए।
इटली ने ऑस्ट्रेलिया भेजे जा रहे ऑक्सफोर्ड-एस्ट्राजेनेका टीके अचानक रोक दिए। ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री स्कॉट मॉरिसन ने कहा-‘इटली में रोजाना करीब 300 लोग मर रहे हैं। इसलिए मैं इसे अच्छे से समझ सकता हूं कि इटली ने यह फैसला क्यों लिया होगा।’
अमेरिका में ‘नेशन फर्स्ट’ का नारा राष्ट्रपति ट्रम्प का था लेकिन टीके के मामले में इस पर अमल किया बाइडेन ने। मार्च तक 16.4 करोड़ डोज तैयार की गई जिनमें से एक भी बाहर नहीं भेजी गई। वायरस से सबसे बुरी तरह प्रभावित देशों में से एक ब्रिटेन ने भी अपने यहां तैयार 1.6 करोड़ टीके पूरी तरह अपने नागरिकों के लिए सुरक्षित रखे।
हमारे देश में केवल 6 प्रतिशत आबादी को ही वैक्सीन लग पाई है जबकि अमेरिका और ब्रिटेन में 50 फीसदी आबादी को पहली डोज दी जा चुकी है। कुछ हफ्ते पहले तक हमने जितने डोज अपने नागरिकों को लगाए थे उससे ज्यादा दूसरे देशों को भेज दिए थे।
महाराष्ट्र, राजस्थान जैसे प्रदेशों के अलावा इंडियन मेडिकल एसोसिएशन ने भी केन्द्र सरकार से कम उम्र वालों को टीका लगाने का अनुरोध किया है। देश के 50 फीसदी कोरोना केस महाराष्ट्र में आ रहे हैं। वहां के लिए तो टीकाकरण की अलग नीति ही बननी चाहिए और युद्ध स्तर पर टीके लगाए जाने चाहिए।
डब्ल्यूएचओ के अनुसार संक्रमण की दर 5 फीसदी से ज्यादा हो तो महामारी नियंत्रण से बाहर मानी जाती है। देश में यह आज नौ फीसदी के करीब है। पहली लहर में कोरोना कंट्रोल से बाहर हुआ तो सरकार को इसका उपाय लॉकडाउन ही समझ आया था। उन हालातों में सड़क पर आ चुके इंसान की मदद के लिए लाखों हाथ उठे थे। अस्पतालों में अपनी जान पर खेल कर डॉक्टर इलाज कर रहे थे। परिवार बचा रहे इसके लिए कुछ ने तो अपनी कार में ही घर बना लिया था। वह सब अद्भुत-अभूतपूर्व प्रयास दूसरे लॉकडाउन में कहां से आएंगे। उस शिद्दत से कितना आ पाएंगे?
सबसे कम लागत पर उत्पादन और बड़ी आबादी को सुगमता से टीका लगाने की हमारी खासियत का फायदा दुनिया को दिया जा सकता है, लेकिन युद्धकाल में सबसे बड़ी कोशिश तो अपने लोगों की जान बचाना होना चाहिए। एक बार घर संभल जाए तब तो पड़ोसी की मदद के लिए बाहर कदम रखेंगे? अंतरराष्ट्रीय छवि निर्माण के लाखों मौके आएंगे। जरूरतमंद गरीब देशों को मदद की भी जानी चाहिए लेकिन देश में अति विशेष स्थितियां हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि कोरोना से मौतें, श्मशान में एक साथ जलती चिताएं, आईसीयू की भीड़ के हम आदी हो चुके हैं?
मुंबई की मेयर का बयान था कि शहर में सिर्फ तीन दिन का स्टॉक, 1लाख 85 हजार डोज ही बची हैं। ऐसी ही खबरें दूसरी जगहों से भी आ रही हैं। सरकार 45 वर्ष से कम उम्र वालों को टीके की फिलहाल बात ही नहीं कर रही है। ऐसे में उसकी वैक्सीन डिप्लोमेसी पर सवाल पूछा जाएगा। मौतों की कीमत पर छवि निर्माण की कितनी डोज या मात्रा हितकर है यह बताना होगा।