निरुक्त भार्गव, पत्रकार
शायद-ही कोई ऐसा दिन जाता हो कि देश-भर में छोटे से लेकर संगीन अपराधों में मीडिया/प्रेस से जुड़े लोगों की संलिप्तता होने की खबरें विभिन्न प्रचार माध्यमों में शाया नहीं होती हों! इन प्रकरणों की गहनता से छान-बीन करने पर मालूम पड़ता है कि जिन भाई साहबों के नाम आरोपी के रूप में सामने आए हैं, असल में वे ‘चोला-छाप’ लोग हैं नाकि कलम/कैमरा/कंप्यूटर चलाकर ख़बरों की दुनिया में अपनी आजीविका कमाने वाले! पूछा जाना चाहिए कि क्योंकर ये “कारस्तानीबाज़”, अग्र-पंक्ति के खबरचियों के बीच जगह बनाने में सफल हुए?
नामी-गिरामी पत्रकारों को केंद्र में रखकर कई चर्चित बॉलीवुड फिल्में बनीं: “मैं आज़ाद हूं”, “मिस्टर इंडिया”, “नायक” इत्यादि. कई प्रसिद्ध टीवी सीरियल भी बने. महर्षि नारद तो पत्रकार बिरादरी के पितामह हैं हीं, सो उनके क़िरदार को कितने कथानकों में भुनाया गया, किससे छिपा है?
मगर, जब भारतवर्ष के सबसे युवा और दूरगामी सोच वाले प्रधानमंत्री राजीव रत्न गांधी की 1991 में तमिलनाडू में लोमहर्षक हत्या हुई, तो अपराधी कौन थे? बिलाशक, लिट्टे के एक्टिविस्ट्स, लेकिन वो मानव-बम के रूप में जब घटना-स्थल पर पहुंचे तो उन्होंने स्वयं का क्या परिचय दिया था: हम सब पत्रकार हैं…
बहुकथित ‘सिमी’ सरगना सफ़दर नागोरी और उसकी नापाक गैंग का जिस पैमाने पर मध्यप्रदेश की पुलिस ने भांडा फोड़ा था, तो सारी दुनिया हैरान थी ये जानकर कि वो पत्रकारिता व जनसंचार का विद्यार्थी था! 2008 के मुंबई सीरियल बम ब्लास्ट काण्ड को भी कैसे भूला जा सकता है, जब कतिपय लोगों पर मीडिया प्रतिनिधि बनकर सबूतों को छिन्न-भिन्न करने के आरोप लगे थे!
बहुत दूर जाने की जरूरत नहीं है क्यूंकि भोपाल के वल्लभ भवन और पुलिस मुख्यालय तक “भाई लोग” आसानी से दाखिला पा जाते हैं! सर्वोच्च न्यायालय, उच्च न्यायालय और इनके अधीनस्थ न्यायालयों सहित विधानसभा भवनों और पार्लियामेंट भवनों में क्या स्थिति रहती होगी, सहज रूप से समझा जा सकता है! ये “काली भेड़ें” राजनीतिक दलों के कार्यालयों, विश्वविद्यालयों/महाविद्यालयों/विद्यालयों/मंदिरों-मस्जीदों-चर्चों-आश्रमों, सरकारी दफ्तरों, निजी स्थानों और व्यावसायिक प्रतिष्ठानों तक में सेंध लगा देती हैं, मीडिया के वेश में…