1952 में रिलीज़ हुई “बैजू बावरा” फिल्म और उसके लोकप्रिय गानों के बाद अग्रणी पार्श्व गायिका के रूप में स्थापित हो चुकीं लता मंगेशकर 92 वर्ष की अवस्था में जब दुनिया से बिदा हुईं, तो उसी मुकाम पर रहते हुए जो उन्होंने बड़ी शिद्दत से हासिल किया था. गायकी के आरोहों और अवरोहों के बीच गीत-संगीत-फिल्म के क्षेत्र में जो मुकम्मल स्थान उन्होंने अर्जित किया, उसको पिछले 70 बरस में कभी कमतर नहीं होने दिया. अपने निजी जीवन और प्रोफेशनल करियर में खूब संघर्ष किए…बड़े-बड़े संगीतकारों, गीतकारों, निर्माता-निर्देशकों से जमकर पंगे भी लिए…कठोर आलोचनाओं का सामना भी किया लेकिन कभी खुद्दारी नहीं छोड़ी और किसी प्रकार की चूहा दौड़ में शामिल हुए बगैर शान से इस जहां से कूच कर गईं. लताजी पर यूं तो पांच किताबें लिखी जा चुकी हैं, जो प्राय: उनकी शख्सियत और मकबूलियत पर केन्द्रित रहीं, पर उज्जैन के संगीतप्रेमी संजय मोदी जैन द्वारा लिखी गई किताब, “संघर्ष–सफलता और लता” कई अनछुए, दिलचस्प और प्रेरणादायी पहलुओं और प्रसंगों से साक्षात्कार करवाती है…..
संजय बताते हैं कि लताजी की समूची ज़िन्दगी पर उनके पिता दीनानाथ मंगेशकर का जबरदस्त प्रभाव रहा. वे दौलत, शोहरत और इज्ज़त के शिखर पर रहीं और चाहतीं तो मुंबई में किसी भी स्थान पर अपना बंगला बनवा सकती थीं, लेकिन उन्होंने मरते दम तक पैडर रोड वाला फ्लैट नहीं छोड़ा. ‘प्रभु कुञ्ज’ नामक बिल्डिंग में जो 36 फ्लैट्स हैं, उनमें से पहले माले पर स्थित एक फ्लैट में वो 1960 से रहीं. वे कहती थीं कि ये जगह छोड़ दूंगी तो लगेगा कि बाबा (पिताजी) का साथ छूट गया है, इसीलिए यहीं रहूंगी मरते दम तक.
मुसीबतों के पहाड़ों के बीच से लता ने अपना रास्ता बनाना शुरू किया था. सन 1942 में उनके पिता चल बसे. वे खुद की ‘बलवंत नाटक कंपनी’ चलाते थे तीन पार्टनर्स के साथ और घूम-घूम कर ड्रामा शो किया करते थे. जब लोगों ने नाटकों की तरफ से पीठ फेरना शुरू की, तो उनकी माली हालत खस्ता होने लगी. लताजी सबसे बड़ी थीं परिवार में और उनकी उस समय सिर्फ 11 साल की उम्र थी. एक्ट्रेस नंदा के पिताजी मास्टर विनायक, जिनकी अपनी एक नाटक कंपनी थी, कोल्हापुर में वे दीनानाथ को जानते थे. उन्होंने लताजी को अपनी नाटक कंपनी में नौकरी पर रख लिया, 40 रुपए मासिक वेतन पर, जिससे पूरे परिवार का पालन-पोषण होता था, लता, मीना, आशा, उषा और भाई ह्रदयनाथ और आई का. धीरे-धीरे उनकी सैलरी 75 रुपए प्रति माह पहुंच गई. ‘जवां है मोहब्बत’ फेम नायिका और गायिका नूरजहां भी उसी कंपनी के लिए काम करती थीं. लता उनकी बड़ी फेन थीं. स्टूडियो में 15 साल की लता का एक गाना सुनकर नूरजहां ने उनसे कहा था कि तुम अच्छा गाती हो, गाना गाया करो. नूरजहां ने उन्हें उर्दू अल्फाज़ों का बेहतर उच्चारण करने में मदद भी की. लताजी को गाने और संगीत का शौक तो बचपन से था ही. वे रेडियो पर फरमाइशी गीत सुनने की शौकीन थीं. वे नूरजहां के गीत सुनने के लिए फरमाइश भेजा करती थीं. रेडियो पर जब ये उद्घोषणा होती थी कि नूरजहां का गीत सुनने के लिए कोल्हापुर से लता मंगेशकर ने फरमाइश भेजी है तो मंगेशकर परिवार खुश होता कि उनका नाम रेडियो पर आया. शायद ईश्वर को ही पता होगा कि एक समय ऐसा भी आएगा कि जब रेडियो पर प्रसारित होने वाले गानों का इतिहास लिखा जाएगा, तो कोल्हापुर की लता मंगेशकर के बगैर वो इतिहास अपूर्ण रहेगा.
अपनी पुस्तक की स्क्रिप्ट पर निगाह डालकर संजय बताते हैं कि लताजी जब 6 साल की थीं तो सांगली के सरकारी स्कूल में उनका दाखिला हो गया. दूसरे दिन जब वो स्कूल गईं तो छोटी बहन आशा, जो उस समय दो साल की थीं, को भी साथ ले गईं, तो टीचर ने डांट लगा दी क्योंकि आशा के कारण क्लास में कुछ व्यवधान उत्पन्न हुआ था. टीचर ने निर्देश दे दिया कि कल से छोटे बच्चे को मत लाना, जो उन्हें चुभ गया कि आखिर मैं दीनानाथ मंगेशकर की बेटी हूं. उन्होंने तय कर लिया कि वो फिर कभी स्कूल नहीं जाएंगी और घर आकर माता-पिता की असहमति के बाद भी उस पर कायम रहीं. वे फिर घर ही पढ़ीं. जो बालिका एक ही दिन स्कूल गई उसने अपने हूनर को इस कदर निखारा कि न सिर्फ हिन्दुस्तान की बल्कि विश्व की 9 जानी-मानी यूनिवर्सिटीज ने कालांतर में उन्हें डॉक्टरेट की उपाधि से नवाज़ा…
बात 1940 के आस-पास की है, जब एक सुगम संगीत प्रतियोगिता पुणे में हुई, उसमें 188 लड़कियों ने भागीदारी की. पिता के कहने पर लता ने भी भाग लिया और प्रथम आईं और इनाम में एक तानपुरा मिला. 1948 में लताजी को महल फिल्म के गाने “आएगा आने वाला” से बहुत प्रसिद्धि मिली. फिल्म रिलीज़ हुई और उसके संगीतकार खेमचंद प्रकाश की कुछ दिनों बाद ही मृत्यु हो गई, लेकिन फिल्म और उसके गाने दोनों हिट हुए. उस समय म्यूज़िक प्लेट (रिकॉर्ड) पर प्लेबैक सिंगर का नाम नहीं हुआ करता था, बल्कि फिल्म की हीरोइन का पिक्चर का नाम होता था. उक्त गाना मधुबाला पर फिल्माया गया था और उनका उस फिल्म में नाम था कामिनी. तो म्यूज़िक रिकॉर्ड में गायक का नाम कामिनी लिखा गया. रेडियो को चिट्ठी लिख-लिखकर लोग पूछते कि कामिनी कौन है? यह बात लताजी को बहुत अटपटी लगी और उन्होंने ‘ओरीजिनल’ प्लेबैक सिंगर को मान्यता दिलाने का मुद्दा उठाया और उसमें सफलता भी पाई. तब रेडियो को विज्ञापन देकर बताना पड़ा कि महल फिल्म में “आएगा आने वाला” फिल्म का गाना लता मंगेशकर ने गाया है, जो महाराष्ट्र के कोल्हापुर की नई गायिका है.
1952 में आई ‘बैजू बावरा’ फिल्म और उसके गाने हिट हुए, तो लोग उन्हें नंबर वन प्ले बेक सिंगर मानने लग गए, हालांकि ‘बरसात’ फिल्म के गानों से भी उन्हें मकबूलियत मिल चुकी थी. 1955 में ‘फिल्म फेयर अवार्ड’ में दो केटेगरी शामिल नहीं थीं सर्वश्रेष्ठ प्लेबैक सिंगर और सर्वश्रेष्ठ गीतकार. उसी समय शंकर जयकिशन की फिल्म ‘चोरी-चोरी’ रिलीज़ हुई, लताजी ने इसमें “प्यार हुआ, इकरार हुआ” और “रसिक बलमा” जैसे मशहूर गाने गाए थे. शंकर जयकिशन को बेस्ट म्यूजिक डायरेक्टर का अवार्ड मिला. पूरी फिल्म इंडस्ट्री के लोग मौजूद थे अवार्ड फंक्शन में, तब मंच से शंकर जयकिशन ने लताजी को कहा कि तुम स्टेज पर आकर गाना गाओ, पर लताजी ने यह कहते हुए गाना गाने से इंकार कर दिया कि अवार्ड ‘सिंगर’ अथवा ‘गीतकार’ को नहीं दिया गया है. उनकी टिप्पणी थी, “आप अपना संगीत बजा दो, मैं तो नहीं गाऊंगी.” लता की आपत्ति के बाद फिल्म फेयर अवार्ड के आयोजकों को 1958 से बेस्ट प्लेबेक सिंगर और बेस्ट गीतकार का अवार्ड देना शुरू करना पड़ा. लता मंगेशकर को फिल्म मधुमती के गीत “आजा रे परदेसी, मैं तो कब से खड़ी इस पार” के लिए पहला फिल्म फेयर अवार्ड मिला और सलिल चौधरी को उसी फिल्म के कारण बेस्ट म्यूजिक डायरेक्टर का और शैलेन्द्र को बेस्ट गीतकार का अवार्ड मिला. 1962 में लताजी ने ही फिर झंडा बुलंद किया कि बेस्ट सिंगर अवार्ड के लिए मेल और फीमेल केटेगरी में अलग-अलग अवार्ड दिए जाएं. 1968 से लताजी ने इस अवार्ड से स्वयं को ये कहते हुए अलग कर लिया कि अब नए गायकों को अवार्ड दिए जाने चाहिए.
उज्जैन जिले के बडनगर तहसील के कवि प्रदीप के लिखे ‘गैर फ़िल्मी’ गीत “ऐ मेरे वतन के लोगों, ज़रा आंखों में भर लो पानी” को लताजी ने ही स्वर दिया था और संगीतबद्ध किया था सी रामचंद्र ने. इस गीत को पहली बार प्रस्तुत किया गया था 1963 में दिल्ली में जिसे सुनकर तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरु रो पड़े थे. बाद में लताजी-प्रदीपजी-रामचन्द्रजी ने मुंबई में इस गीत को बाकायदा रिकॉर्ड किया और रिलीज़ भी किया. तब इन तीनों ने मुंबई में प्रेस कांफ्रेंस में घोषणा की थी कि उक्त गाने के रिकॉर्ड की बिक्री से जो भी पैसा आएगा, वो ‘सैनिक कल्याण कोष’ में जमा होगा…एक बार लताजी प्रसिद्द फिल्मकार राज कपूर से भिड़ लीं, रॉयल्टी को लेकर. संजय बताते हैं कि लताजी ‘मेरा नाम जोकर’ फिल्म के गीत गाने के बदले रॉयल्टी चाहती थीं, पर राज कपूर ने साफ मना कर दिया. इसपर लताजी ने भी गाने से मना कर दिया. बाद में राज कपूर ने अपने बेटे ऋषि कपूर की लॉन्चिंग फिल्म “बॉबी” में पूरी रॉयल्टी देकर लताजी से गाने गवाए. बाद में भी कई फिल्मों के गाने उन्हीं से गवाए.
पुस्तक “संघर्ष–सफलता और लता” के लेखक संजय मोदी जैन के अनुसार, लताजी ने करीब 5500 गाने गाए, जिनमें करीब 1000 गाने 28 भिन्न-भिन्न भारतीय भाषाओँ के थे. उन्हें दो बातों का मलाल ज़िन्दगी भर रहा कि एक तो उनके पिता की तब डेथ हो गई जब वो बहुत छोटी थीं और दूसरा ये कि वे अपने पिता की इच्छानुसार क्लासिकल सिंगर नहीं बन सकीं. खुद के द्वारा गाए गए गीत, “मैं का करूं राम, मुझे बुड्ढा मिल गया” को भद्दा बताते हुए उन्होंने इसे नापसंद किया और इसे गाने पर भी अफ़सोस जताया. स्वयं के द्वारा गाए गए गीतों में लताजी को जयदेव द्वारा बनाया गया गीत “तुम्हें देखती हूं तो लगता है ऐसे”, रेशमा और शेरा फिल्म का गाना “तू चंदा, मैं चांदनी” (1976), ‘महल’ फिल्म का गाना “आएगा आने वाला” (1948) और फिल्म ‘चोरी-चोरी’ का गीत “रसिक बलमा” गाना अत्यधिक पसंद था.