विश्व पर्यावरण दिवस विशेष-
– वृक्षों का संरक्षण जीवन के रक्षण हेतु नितांत आवश्यक।
– नदियॉ जीवन-दायिनी हैं। नदियों को पुनर्जीवित करना प्रमुख कर्तव्य।
– वायु प्रदूषण से प्राणवायु की रक्षा प्राणी मात्र के कल्याण के लिये संजीवनी।
– पर्यावरण संरक्षण का संकल्प आजीवन संकल्प हो।
पंचभूतों से बना यह शरीर और ब्रह्मांड दोनों पर्यावरण के प्रति सदा सजग रहने हेतु संकल्पित रहे हैं।जब-जब यह संकल्प डगमगाया है, सृष्टि अस्थिर हुयी है। प्रकृति ने रचना ही ऐसी की थी कि पर्यावरण और जीवन एक दूसरे के सम्पूरक रहेंगे। समय के साथ-साथ पर्यावरण की अनदेखी होती गयी। विज्ञान के चमत्कारों ने प्रकृति का विदोहन कर विकृति को जन्म दिया। परिणामस्वरूप, विभिन्न आपदायें जल-भूमि-वायु आदि के प्रदूषित होने के कारण विभत्स प्रदूषणों के स्वरूप में प्रकट हुयीं।
शहरीकरण ने हरे-भरे जंगलों को मिटाकर कंक्रीट के जंगल पैदा कर लिये।जंगली-जीवों का घर उजाड़कर ब्रह्मांड के सबसे बुद्धिमान व समझदार कहे जाने वाले मानव समाज ने ईंट-पत्थर के जंगल बना डाले।कंक्रीट के जंगलों में सजावट के लिये वृक्षों को काटा जाने लगा और तरह-तरह के सुंदर फ़र्नीचरों एवं साज-सज्जा से घर को सजाया जाने लगा। वृक्षों के अविवेकपूर्ण कटाव से पर्यावरण में अस्थिरता आती गयी, प्रदूषण जन्मते गये, फैलते गये और विज्ञान खुद की पीठ थपथपाते हुये पर्यावरण प्रदूषण से बचने के समाधानों को खोजता गया। जिसमें जल प्रदूषण से पीने योग्य पानी की रक्षा के लिये आर.ओ मशीन, हवा में फैले ज़हरीले वायु प्रदूषण से बचने के लिये मास्क या अन्य एयर प्योरिफायर मशीन की खोज और विकास की इबारत विज्ञान लिखता गया और बिना दूरगामी परिणामों की चिंता किये, स्वयं ख़ुश होता गया।
वृक्षारोपण विषय पर स्कूलों में निबंध-लेखन और भाषण प्रतियोगिताएँ तो आयोजित होती गयीं परंतु, वृक्षों को उतनी ही तेज़ी के साथ काटा भी जाने लगा। आक्सीजन कम पड़ गयी।बढ़ते प्रदूषण से प्रगतिशील नगरों के नागरिक एक घने धुँध के साये में एयर फ़िल्टर मॉस्क लगाकर जीने लगे।जीवन धीरे-धीरे असहाय होने लगा।आक्सीजन की कमी और दूषित प्राणवायु ने फेंफडों को कमजोर कर निष्प्राण करना शुरु कर दिया। हमारी रोग प्रतिरोधक क्षमता कम होती गयी। परिणामस्वरूप कभी टी.बी तो अब कोरोना जैसी महामारी पिछले लगभग डेढ़ वर्षों से हमें सबक़ सिखा रही है।
यक्ष प्रश्न है- क्या हम अब जाग जायेंगे? वृक्षारोपण कोई एक अभियान मात्र नहीं है जिसमें फ़ोटो खिंचवा कर समाज में स्वयं को पर्यावरण प्रेमी बताने की होड़ लगी रहती है।यह मानव एवं प्राणी मात्र के अस्तित्व से जुड़ा प्रश्न है।यह प्रासंगिक है कि वृक्ष कबहुँ न फल भखै, नदी न संचय नीर। परमार्थ के कारने साधुन धरा शरीर। अर्थात् ना वृक्ष कभी अपना फल खाता है, ना नदी कभी अपना जल पीती है। ये वो संत हैं जो परमार्थ के लिये जीते हैं, बढ़ते हैं, बहते हैं।यह जीवन का सबसे बड़ा त्याग है। निःस्वार्थ भाव से प्राणी मात्र के कल्याण के लिये अपना जीवन होम करना।
कोरोना महामारी ने हमारी ऑखों के ऊपर का पर्दा हटा दिया है। आक्सीजन की कमी और फेंफडों के संक्रमण से अनगिनत जानें गयी हैं। कोई ऐसा नहीं होगा जिसके आस-पड़ोस में ऐसी घटना ना हुयी हो। भारत सरकार स्वच्छता अभियान चलाकर, नदियों को पुनर्जीवित करने का प्रयास कर रही है और पर्यावरण संरक्षण हेतु प्लास्टिक के उपयोग पर प्रतिबंध लगाकर गलोबल वार्मिग के ख़तरे से इस पृथ्वी को बताना चाह रही है। ये देश के विभिन्न कोनों में आ रही प्राकृतिक आपदायें चाहे वो भूकम्प हो, बाढ़ हो, तूफ़ान हो, महामारी हो, भूस्खलन हो, सूखा पड़ गया है; ये हमें कुछ बताना चाहते हैं। हमें कुछ संदेश देना चाहते हैं। विलुप्त हो रहे पौधे, पशु, पक्षी, जलचर आदि हमें उस आने वाली त्रासदी का संकेत दे रहे हैं जो पर्यावरण संरक्षण की ख़ामियों के कारण उत्पन्न होने वाली हैं और जिनका स्वरूप बड़ा ही विध्वंसक प्रतीत होता है।
आईये ! विश्व पर्यावरण दिवस के उपलक्ष्य में आज संकल्पित हों कि पर्यावरण की सुरक्षा हमारे जीवन का एक महत्वपूर्ण पहलू होगा। आने वाली पीढ़ियों के लिये हम एक सशक्त एवं स्वच्छ पर्यावरण का निर्माण करेंगे। वृक्षारोपण कर प्रकृति को संरक्षित करेंगे। नदियों एवं बाग-वन का संरक्षण एवं संवर्द्धन अपनी ज़िम्मेदारी मानेंगे। हम आने वाले भविष्य को एक सुदृढ़ एवं सुरक्षित वातावरण प्रदान करेंगे। क्योंकि, हमें भी जीवन जीने के लिये एक अच्छा पर्यावरण हमारे पूर्वजों ने हमारे लिये संरक्षित एवं संवर्द्धित कर हमें प्रदान किया था।
( शिक्षाविद् लेखक डॉ. पुनीत कुमार द्विवेदी, मॉडर्न ग्रुप ऑफ़ इंस्टीट्यूट्स इंदौर में प्रोफ़ेसर एवं समूह निदेशक के रूप में कार्यरत हैं।)