सुपरहीरो है राजगढ़ के हनुमान जी – आनंद शर्मा

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रविवारीय गपशप
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कल मेरे बच्चों ने मुझसे पूछा कि आपका सबसे फ़ेवरेट सुपर हीरो कौन है ? मैंने बेहिचक कहा हनुमान जी , बच्चे पहले तो मुस्कुराये फिर बोले सही है। दरअसल पश्चिम में लोगों को ऐसे महानायक हासिल नहीं हैं, जबकि हमारे यहाँ पौराणिक गाथाओं के ऐसे सम्राट जन जन के हृदय में बिराजे हैं। कल हनुमान जयंती भी थी तो सभी पाठकों को हनुमान जन्मोत्सव की बधाई। हनुमान जयंती पर मुझे अपनी पूर्व पदस्थापना के जिले राजगढ़ का एक प्रसंग याद आ रहा है , जहाँ मैं कलेक्टर हुआ करता था। राजगढ़ में कलेक्ट्रेट परिसर से लगा हुआ एक हनुमान मंदिर है, जिसका प्रबंध और कलेक्ट्रेट के कर्मचारियों की समिति करती है। मुझसे पहले कलेक्टर रहे ओझा साहब के समय से ही ये अलिखित अनुबंध सा था कि यदि मंगलवार को दफ्तर में हैं और कोई अन्य व्यस्तताएं नहीं हैं तो शाम की आरती में कलेक्टर शामिल हुआ करते थे। ओझा जी तो शराब के नशे के आदी लिपिकों को हनुमान जी की सौगन्ध दिला शराब की लत भी छुड़वाते थे। आरती में उपस्थिति की परंपरा को मैंने भी जारी रखा। एक मंगलवार को जब मैं आरती में उपस्थित था तो आरती करते करते मुझे ये लगा कि हनुमान जी की मूर्ति छोटी है जबकि मंदिर बड़ा था। विचार आया कि क्यों न मूर्ति को बदल के बड़ी मूर्ति स्थापित की जाए।

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मैंने ये ख्याल किया ही था कि दो चार दिन में ही गंजबासोदा के निवासी और मेरे परिचित श्री करीम खान का फोन आ आया जो प्रस्तर निर्मित कलाकृतियां का व्यवसाय करते थे । मैंने अपनी मंशा उनसे कही तो उन्होंने कहा कि हनुमान जी की एक मूर्ति तो उनके पास तैयार रखी है वे उसे अगले ही हफ्ते भेज देंगे । मैं बड़ा प्रसन्न हुआ मूर्ति का प्रबंध तुरंत हुआ , अगले सप्ताह मूर्ति आ भी गयी , जिसे कलेक्ट्रेट के एक खाली कमरे में रखवा दिया गया । मैंने ज़िला नाज़िर श्री गोस्वामी जी को कहा कि अच्छा सा मुहूर्त देख कर इसे स्थापित करते हैं । नाज़िर जी बोले मेरे एक परिचित और विद्वान पंडितजी नरसिंहगढ़ में हैं उनसे मुहूर्त पूछता हूँ।

अगले सोमवार नाज़िर जी नरसिंहगढ़ से लौटे तो बताया कि पंडित जी तो कह रहे हैं कि पुरानी मूर्ति प्राणप्रतिष्ठित है , यदि कोई टूट फुट नहीं हो तो उसे नहीं हटाया जा सकता , ये नई मूर्ति तो कहीं और ही विराजित होगी । मैं यह सुन कर थोड़ी देर निःशब्द हो गया , पंडित जी ने बिलकुल सच कहा था । अच्छा ही हुआ जो पूछ लिया वर्ना बड़ा अनर्थ हो जाता , खैर अब रखी हुई मूर्ति को कहाँ प्रतिष्ठित किया जावे इसकी खोज प्रारम्भ हुई । मैंने अपने साथियों से कहा कि किसी मंदिर में आवश्यकता हो तो इसे स्थापित कर दें। सबने आश्वस्त किया कि पता करेंगे पर कोई संतोष जनक जबाब नहीं आया । इस उहापोह में बहुत दिन बीत गए और फिर मुझे लगने लगा कि कहीं ऐसा न हो कि मेरा तबादला हो जाये और ये काम अधूरा रह जाये ।

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एक दिन किसी कार्यक्रम में मेरा परायण चौक के राममंदिर में जाना हुआ । परायण चौक नगर के मध्य में स्थित है और हर धार्मिक कार्यकर्मों में यहाँ नगर वासी एकत्रित होते हैं । इस धर्मस्थल पर हनुमान जी का पृथक से मंदिर नहीं था , मुझे लगा कि यहाँ पर बात की जा सकती है । थोड़े बहुत परिश्रम के बाद ट्रस्ट वाले मान गए और राममंदिर से लगे हुए खाली स्थल पर हनुमान जी विराजमान हुए । मंदिर ट्रस्ट का था और बगल में श्रीराम बिराजे हैं तो मंदिर में अब खूब रौनक रहती है | चूँकि हनुमान जी यहाँ अपनी इच्छा से ही आये तो सब इन्हें इच्छापूर्ण हनुमान कहते हैं ।