भारतीय अर्थव्यवस्था में जनजातीय मेले और हाट बाजार का महत्व।

Pinal Patidar
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सनी राजपूत
आज हम हाट बाजार जाएंगे, हम हाट करने जा रहे है, उस गाँव में तो बहुत बड़ा हाट लगता है। हम तो मेले में घूमने गए थे। मेले में इस बार बहुत ही उपयोगी वस्तुएं आयी है। इस प्रकार की सभी बातें हमने अपने आस-पास जरूर सुनी होगी और बहुत बार कही भी होगी।

भारत में हाट बजार की बहुत पुरानी व्यवस्था है। जो वर्तमान में भी उसके मूल स्वरूप में दिखाई देती है। सप्ताह के सातों दिनो के अनुसार हाट बजार अलग-अलग स्थानों पर लगते है। हाट बाजार स्थानीय व्यवसाय और व्यापार को बढ़ाने का उत्तम उपाय है। जिससे स्थानीय अर्थतन्त्र को मजबूती तो मिलती है साथ ही उस क्षेत्रों के लोगों का आर्थिक विकास भी होता है । मध्यप्रदेश समेत सम्पूर्ण भारत के विभिन्न जनजातीय एवं ग्रामीण क्षेत्रों में भी हाट बाजार की परम्परा रही है। हाट बाजार मे दैनिक उपयोग से लेकर खाने पीने की वस्तुओं तक सभी उपलब्ध रहती है। जिसकी ख़रीदारी बड़े स्तर पर की जाती है।

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मध्यप्रदेश के झाबुआ क्षेत्र में भी जनजातीय हाट बाजार और मेले की परम्परा है। झाबुआ का भगोरिया मेला विश्व विख्यात है। इसी प्रकार उज्जैन के पास घोंसला मे प्रति रविवार पशु मेला और हाट लगता है। जिसमे उज्जैन संभाग के अनेक क्षेत्रों से लोग आते है और अपनी आवश्यकता के अनुसार पशुओं की खरीदी-बिक्री करते है। उज्जैन में लगने वाला कार्तिक का मेला भी एक अनुपम उदाहरण है।

विभिन्न समय पर लगने वाले हस्तशिल्प मेले भी जनजातीय समाज से ही जुड़े रहते है। उज्जैन में कालिदास अकादमी में लगने वाला हस्तशिल्प मेला भी प्रख्यात है। जनजातीय एवं ग्रामीण वर्गो द्वारा बनाई गयी वस्तुओं की खरीदी के लिए शहरों से लोग उन मेलो में जाते है। इसी प्रकार महाराष्ट्र के गोंदिया जिले में लगने वाला कछारगढ़ का तीन दिवसीय मेला भी प्रख्यात है।

समय-समय पर विभिन्न स्थानों पर लगने वाले हाट बाजार और मेलों के द्वारा क्षेत्रीय अर्थव्यसथा को बल मिलता है। सही अर्थो में भारत को आत्मनिर्भर बनाने और स्थानीय वस्तुओं के प्रयोग को बढ़ावा देने में मेले और हाट बाजार भारतीय अर्थव्यसथा की रीढ़ है। एक और जहा बड़ी बड़ी कंपनीया और कारखाने शहरों में रहने वालों की आवश्यकताओ की आपूर्ति में असमर्थ होते है। वही भारत के जनजातीय और ग्रामीण क्षेत्रों में लगने वाले हाट बजार और मेले लगभग सभी क्षेत्रों की क्षुधा को शांत करते है।

प्रकृती से अधिक निकट होने के कारण जनजातीय और ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करने वाले नागरिक प्रकृति को ध्यान में रखते हुये अपने उपभोग की वस्तुओं की व्यवस्था करते है। जनजातीय समाज में प्रकृति से ही लेकर पुनः उसे अर्पित करने की शिक्षा निरंतर एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को दी जाती है।

प्रकृति से प्राप्त वस्तुओं से उपयोगी वस्तुओं के निर्माण में लागत कम होने से उनकी कीमतों पर अधिक प्रभाव भी नहीं पड़ता है। जिससे सभी वर्गो के लोग सरलता से वस्तुओं की खरीदी आदि करने में सक्षम होते है। जनजातीय और ग्रामीण क्षेत्रों में हाट बाजार और मेलो के माध्यम से आत्मनिभर्ता का अनुपम उदाहरण देखने के लिए मिलता है।