हरेक को जानना जरूरी है, ‘विंध्यप्रदेश’ की हत्याकथा..!

Mohit
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जयराम शुक्ल

हर साल 1 नवंबर की तारीख मेरे जैसे लाखों विंध्यवासियों को हूक देकर जाती है। मध्यप्रदेश के स्थापना दिवस का जश्न हमें हर साल चिढ़ाता है।

जो इतिहास से सबक नहीं लेता वह बेहतर भविष्य को लेकर सतर्क नहीं रह सकता इसलिए विंध्यप्रदेश का आदि और अंत जानना जरूरी है।

विंध्यप्रदेश की हत्याकथा में जब भी पं.नेहरू की भूमिका का कोई भी जिक्र होता है तो उन्हें भारतीय लोकतंत्र का आदि देवता मानने वाले लोग बिना जाने समझे टूट पड़ते हैं। कुछ महीने पहले ऐसे ही किसी संदर्भ में यह लिख दिया कि शैशव काल में ही एक प्रदेश की हत्या इसलिए कर दी गई क्योंकि उसके सबसे पिछड़े क्षेत्र ने पंडित नेहरू और उनकी काँग्रेस पार्टी को पूरी तरह खारिज कर दिया था।

यह मसला अत्यंत पिछड़े सीधी(सिंगरौली सम्मिलित) जिले का था, जहाँ की जनता ने देश के पहले आम चुनाव यानी 1952 में पंडित नेहरू के तिलस्म को खारिज करते हुए उनकी महान कांग्रेस पार्टी को डस्टबिन में डाल दिया। सीधी की सभी विधानसभा सीटों और लोकसभा सीट में काँग्रेस सोशलिस्टों से पिट गई थी।

यह संदर्भ लिखे जाने के बाद बहुत प्रतिक्रियाएं आईं रही हैं। कोई संदर्भ स्त्रोत जानना चाहता था तो कुछ लाँछन, तंज और गाली की भाषा तक उतर गए। खैर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को भोगने का सभी को बराबर का अधिकार है..इस पर कुछ नहीं कहना..।

कहते हैं एक तिनगी भी तोप दागने के लिए पर्याप्त होती है। विंध्यप्रदेश के पुनरोदय को लेकर विंध्य से भोपाल-दिल्ली तक कई छोटे-छोटे समूह सक्रिय हैं। वे सभी यह सपना सजोये बैठे हैं कि उत्तराखंड, छत्तीसगढ़, झारखंड, तेलंगाना जैसे छोटे राज्यों के उदय के बाद विंध्यप्रदेश के पुनरोदय का रास्ता स्वाभाविक रूप से खुल जाता है। विंध्यप्रदेश का जब विलोपन हुआ था तब कहा गया था कि छोटे राज्य सर्वाइव नहीं कर सकते। यह त्थोरी अब उलट गई है।

उदित हुए नए राज्य कभी अस्तित्व में भी नहीं थे जबकि विंध्यप्रदेश एक भरापूरा प्रदेश रहा है पूरे आठ साल। विंध्य की अलख जगाने वाले ये बेचारे वीरव्रती इस क्षेत्र के सभी अलंबरदार नेताओं से गुहार-जुहार लगा-लगाके थक चुके हैं, नेताओं को फिलहाल यह मुद्दा वोट मटेरियल नहीं लगता।

अपन लिख सकते हैं सो हर साल इस दिन अपने उस अबोध प्रदेश की हत्याकथा को याद कर शोक मना लेते हैं। हर साल इस दिन अपनी माटी के स्वाभिमान से जुड़ी टीसने वाली बात अवचेतन से मावाद की तरह फूटकर रिसने लगती है। हर साल ही आक्रोश शब्दों में जाहिर होता हुआ व्यक्त हो ही जाता है।

यह आक्रोश हर उस आहत विंध्यवासी का है जो अक्सर यह कल्पना करता है कि आज विन्धप्रदेश होता तो तरक्की के किस मुकाम पर खड़ा रहता। क्या अपने रीवा की हैसियत भी भोपाल, लखनऊ, पटना, चंडीगढ जैसे नहीं होती..!

विंध्यप्रदेश अपने संसाधनों के बल पर देश के श्रेष्ठ राज्यों में से एक होता…लेकिन उसे आठ साल के शैशवकाल में सजा-ए-मौत दे दी गई। यह एक बार नहीं हजार बार कहूंगा, कहता रहूँगा। क्योंकि नई पीढ़ी को इस त्रासदी का सच जानना जरूरी है।

जिनको इतिहास से बवास्ता होना है वे पहले वीपी मेनन की पुस्तक unification of indian states पढ़ ले तो पता चलेगा कि कितनी मशक्कत के बाद विंध्यप्रदेश बना था। जान लें, मेनन साहब सरदार पटेल के सचिव थे।

सन् 48 से 52 तक विंध्यप्रदेश को बचाए रखने की लड़ाई भी जान लें। लाठी-गोली खाएंगे धारा सभा बनाएंगे.. के नारे के साथ आंदोलन हुआ और अजीज, गंगा, चिंताली शहीद हुए। ये मरने वाले कोई भी पालटीशियन नहीं सरल-सहज-विंध्यवासी थे।

तीन मासूमों का लहू रंग लाया और केंद्र शासित होने की बजाय विंध्यप्रदेश एक पूर्णराज्य के तौर पर बच गया। सन् 52 के चुनाव में देश में चल रही नेहरू की प्रचंड आँधी यहां आकर बवंडर मात्र रह गई। विंध्य से उस समय नेहरू को चुनौती दे रहे डा. लोहिया के युवातुर्क चेले बड़ी संख्या में जीतकर विधानसभा पहुंचे।

सीधी जैसे अत्यंत पिछड़े जिले में लोकसभा और सभी विधानसभा सीटों में सोशलिस्ट(एक में केएमपीपी) जीते। पं.नेहरू जी की प्रतिष्ठा के लिए तब यह बड़ा आघात माना गया। बीबीसी, रायटर, एपी जैसे न्यूजएजेंसियों ने दुनिया भर में ये खबरें प्रसारित कीं कि भारत के एक अत्यंन्त पिछड़े इलाके के मतदाताओं ने नेहरू और उनकी काँग्रेस को खारिज कर दिया। तब रीवा में प्रायः सभी बड़े अखबारों व एजेंसियों के पूर्णकालिक दफ्तर थे।

नेहरू के खिलाफ यदि कहीं से खबरें जनरेट होतीं तो वह रीवा था क्योंकि तब वह जेपी, लोहिया, नरेन्द्र देव, कृपलानी का राजनीतिक शिविर बन चुका था। जो इतिहास जानते हैं उन्हें बताने की जरूरत नहीं कि यही चारों उस वक्त नेहरू के सबसे बड़े प्रतिद्वंदी थे। कांग्रेस में भी जबतक थे इन्हें नेहरू जी के समकक्ष ही माना जाता था।

सन् 52 से लेकर 57 के बीच यहां समाजवादी आंदोलन पूरे उफान पर था। जन-जन की जुबान पर समाजवाद चढ़ा हुआ था। विधानसभा में सोपा के मेधावी विधायकों के आगे सत्तापक्ष की बोलती बंद थी। इसी विधानसभा में श्रीनिवास तिवारी का जमींदारी उन्मूलन के खिलाफ ऐतिहासिक सात घंटे का भाषण हुआ था जिसने लोकसभा में कृष्ण मेनन के भाषण के रेकार्ड की बराबरी की थी। भारतीय संसदीय इतिहास में यहीं पहली बार ..आफिस आफ प्राफिट.. के सवाल पर बहस हुई। समाजवादी युवा तुर्कों ने सत्ता की धुर्रियां बिखेर दी।

57 नजदीक आने के साथ ही योजना बनी कि विंध्यप्रदेश का विलय कर दिया जाए। यह रणनीति नेहरूजी की प्रतिष्ठा को ध्यान पर रखकर बनी कि न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी।

56 में state reorganization commission गठित हुआ। दावे आपत्ति मगाए गए। विंध्यप्रदेश के योजना अधिकारी गोपाल प्रसाद खरे ने प्रदेश की आर्थिक क्षमता के आँकड़े तैयार किए। साक्षरता, प्राकृतिक संसाधनों पर भी एक रिपोर्ट तैयार कर आयोग के सामने यह साबित करने की कोशिश की गई कि विंध्यप्रदेश की क्षमता शेष मध्यप्रदेश से बेहतर है। यह रिपोर्ट विद्यानिवास मिश्र संपादित पत्रिका विंध्यभूमि में भी छपी। विद्यानिवास जी तब विंध्यप्रदेश के सूचनाधिकारी थे।

विडम्बना देखिए, समूचे विंध्यप्रदेश का प्रशासन, उसके अधिकारी यह चाहते थे कि इस प्रदेश की अकाल मौत न हो। इस बात की तस्दीक म.प्र. के मुख्य सचिव व बाद में भोपाल सांसद रहे सुशील चंद्र वर्मा ने हिंदुस्तान टाइम्स में छपे एक लेख के जरिये की। श्री वर्मा विंध्यप्रदेश में प्रोबेशनरी अधिकारी रह चुके थे।

जब छत्तीसगढ़ बना तो उनकी तीखी प्रतिक्रिया थी- यदि कोई नया राज्य बनता है तो पहला हक विंध्यप्रदेश का है। जबकि तब श्री वर्मा भाजपा के वरिष्ठ नेताओं में से एक थे, और छग अटलजी की सरपरस्ती में बना।

चूंकि नेहरूजी की प्रतिष्ठा कायम करने के लिए बाँसुरी के सर्वनाश हेतु बाँस को ही जड़ से उखाड़ने का फैसला लिया जा चुका था इसलिए न तो सरकार की आर्थिक क्षमता का सर्वेक्षण देखा गया और न ही विंध्यवासियों की आवाज़ सुनी गई। तत्कालीन काँग्रेसियों के सामने तो खैर नेहरू के आगे नतमस्तक रहने के अलावा कोई विकल्प ही नहीं था।

विधानसभा में सोपा के विधायकों ने मोर्चा खोला। सभी नेताओं के खिलाफ गिरफ्तारी वारंट थे फिर भी ये सभी छुपते छुपाते विधानसभा पहुंचे मर्जर के खिलाफ श्रीनिवास तिवारी जी ने फिर छह घंटे का भाषण दिया। बाहर पुलिस हथकड़ी लिए खड़ी थी।

विधानसभा सभा को छात्रों ने चारों ओर से घेर लिया। रामदयाल शुक्ल(जो बाद में हाईकोर्ट के जस्टिस बने) और ऋषभदेव सिंह(जो संयुक्त कलेक्टर पद से रिटायर हुए) के नेतृत्व में छात्रों ने विधानसभा के फाटक तोड़ दिए व सदन में घुसकर विंध्यप्रदेश के विलय का समर्थन करने वाले सभी मंत्री- विधायकों की जमकर धुनाई की। मुख्यमंत्री व स्पीकर ही बमुश्किल बच पाए।

सभी छात्रों को गिरफ्तार कर जेल भेजा गया। यह आंदोलन भी कुचल दिया गया। गैर कांग्रेस सरकारों पर पंडित नेहरू का नजला गिरना शुरू हो चुका था। इसी क्रम में बाद में केरल की निर्वाचित साम्यवादी सरकार को बर्खास्त किया गया। लाठी और संगीनों के साए में विंध्यप्रदेश को सजा-ए-मौत सुनाई जा चुकी थी।

अब भला बताइए एक मासूम राज्य के खून के छीटे से किसका कुरता रंगा हुआ है..? इतिहास के क्रूर सच को सुनने की भी आदत डालनी होगी।

मैं भी उन वीरव्रतियों के संकल्प के साथ हूँ जो आज भी यह सपना सँजोए बैठे हैं कि एक दिन यह अँधेरा छँटेगा, सुबह होगी, विंध्यप्रदेश का पुनरोदय होकर रहेगा।