जयराम शुक्ल
भोपाल के साथ कई बातें ऐसी जुड़ी हैं जो इसे अन्य शहरों से विशिष्ट बनाती हैं.। वो ताँगेवाला सूरमा भोपाली के अंदाज में बखान करता जा रहा था और मैं सुबह की खुमारी से बाहर निकलकर एक दिलचस्प शहर के उनींदे चौक-चौबारों और गलियों को निहार रहा था। मुझे कुछ भी नहीं मालूम कि जो जहाँ है क्यों है, कब से है ? इस या उस जगह का नाम क्या है..आदि आदि.। जो कुछ भी जान रहा था वो ताँगेवाले की जुबान से। वह मुझे भोपाल के बारे में वैसे ही सबकुछ बयान कर रहा था जैसे कि कभी संजय ने धृतराष्ट्र को कुरुक्षेत्र का आँखों देखा हाल बताया था। तब मुझे कहाँ पता था कि एक दिन यही भोपाल मेरा भी कुरुक्षेत्र बनने वाला है..। बहरहाल..
ताँगेवाले यानी कि रज्जाब भाईजान( जैसी कि हल्की स्मृति है) जितनी बार घोड़े पर सटाक से कोड़े लगाते उतने ही बार उसके मुँह से माँ की लड़ियाँ झड़ती। आजू-बाजू सायकिल, पैदल सबपर बड़बड़ाता नवाबी शहर की कमेंट्री करता आगे बढ़ता। बगल से भटभटाते, पीप-पीप करते जैसे ही कोई भटसुअर आगे बढ़ता रज्जाब भाई के गाली की स्पीड और भी तेज हो जाती- ‘ये सुअर के जने साले खा जाएंगे हमारी रोजी रोटी।’ बीआर चौपड़ा की फिल्म “नयादौर” भी इसी थीम पर है। आदमी बनाम मशीन..।
फिल्मी जुबान में कहें तो सीन कुछ वैसे ही बन रहा था जैसे चद्रधर शर्मा गुलेरी की वह चर्चित कहानी- ‘उसने कहा था’ का अमृतसर में ताँगेवाला प्रसंग। वाह क्या सीन है..। मैंने पूछा- रज्जाब भाई ये माँ-बहन की गालियाँ मुँह से क्यों झड़ती रहती हैं? उसने पलटकर कहा- कौन माँ-का-लड़ा गाली बकता है अएं..। अजीब शहर है यहाँ के लोग खुद को भी गालियाँ देते नहीं थकते। खैर..अब मेरे पास आगे कुछ कहने के लिए नहीं बल्कि सोचने के लिए था।
मैं सोच रहा था कि जब भोपाल के नवाबजादे पैदा हुए होंगे तो उनके मुँह से भी यही झड़ा होगा कि- माँ-की-लड़ी मुझे और अच्छे से नहीं जन सकती थी,देख कैसी गत बना दी मेरी। गाली भोपाल की रवायत है..वह अपनों ही नहीं मेहमानों पर भी फूल सी झड़ती है। जो भोपाल को जानने लगता है उसे ये गालियाँ बख्शीश सी भाने लगती हैं। भोपाल के मेरे प्रिय गीतकार रमेश यादव की एक रचना ही इस रवायत पर है-
गालियों का शहर है सँभल के चलो
तालियों का शहर है सँभल के चलो
हर तरफ सभ्यता से सँवारा हुआ
ये लुटेरों का घर है सँभल के चलो..।
चौकबाजार- इतवारा- मंगलवारा- बुधवारा- सदरमंजिल और न जाने किन-किन मोहल्लों की सैर कराता ताँगेवाला यादगारे-शहजहाँँनी पार्क के ऊपर जब कालीमंदिर वाले रास्ते में प्रगट हुआ तो सुबह- सुबह हिंजडों की एक मंडली ने ताँगे को घेर लिया। वे ढोलक की थाप पर तालियाँ बजाते, हाय..हाय मेरे राजा कहते अश्लील इशारे कर रहे थे।
अबतक किन्नरों को सिर्फ फिल्मों में ही देख रखा था.. महमूद की वह फिल्म शायद ‘कुँवारा बाप’ जिसका गाना..सज रही मेरी अम्मा चुनर गोटे में.. आपने भी सुना होगा। रज्जाब भाई ने उन्हें दपटा- ‘देखते नहीं सुबे-सुबे अब्बे तक बोहनी नई हुई..जाने कहाँ से टपक पड़ते हैं माँ-के-लड़े ये जनखे।’ एक जोरदार सटाक के साथ ताँगे के घोड़े आगे दौड़ पड़े और मैं गालियों-तालियों की जुगुलबंदी के बीच कहीं खो सा गया…।