एक मदमस्त हाथी से जुड़ा, रतलाम की स्थापना का इतिहास

Akanksha
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ललित भाटी

रतनसिंह ( रतलाम पर शासन अवधि 1656 से लेकर 1658 तक।) को तत्कालीन रतलाम राज्य का प्रथम संस्थापक राजा इसलिए कहा गया कि, रतलाम राज्य रतनसिंह द्वारा वहां राज्याधिकार स्थापित करने के पहले से ही अस्तित्व में था।

बादशाह अकबर के नवरत्नों में से एक विद्वान अबुल फजल ने ,अपने द्वारा 1598 में फ़ारसी में लिखे गए ग्रंथ आईन-ए-अकबरी में रतलाम को सूबा (राज्य) मालवा का एक महाल (अंचल) बताया था, जिसकी राजधानी तत्समय उज्जैन हुआ करती थी। कुल मिलाकर रतलाम के होने का ज्ञात प्रामाणिक इतिहास 400 से भी अधिक वर्षों से ज्यादा पुराना
है।

रतलाम राज्य की विधिवत स्थापना करने के साथ ही ,उस पर अपनी राजसत्ता स्थापित करने वाले रतनसिंह की वीरता की गाथा भी अनूठी है। यदि राजा महेशदास का यह युवा पुत्र, बादशाह शाहजहां के दरबार में एक उत्सव के दौरान, अपने पिता के साथ क़मर में कटार लटकाए खड़ा न होता तो, संभवतः रतलाम को राठौड़ राजवंश की सत्ता कहलाने का सौभाग्य नहीं मिलता।

21 वर्षीय युवा रतनसिंह 1640 में अपने पिता के साथ शाहजहां की सेवा में लाहौर चला गया। वहां निरंतर दो वर्षों तक रहा, इस कारण उसका शाही दरबार में प्रवेश बहुत आसान हो गया था।

1641 में शाहजहां की 50 वीं वर्षगांठ के सिलसिले में उत्सवों का क्रम बना हुआ था। 22 जनवरी,1641 को शाहजहां ने दरबार में हाथियों की लड़ाई कराने का हुक़्म दिया। आदेश के पालन में ,शाहजहां के प्रिय कहरकोप नामक शाही हाथी को लड़ाई के लिए उतारा गया। वह बादशाह का सर्वाधिक चहेता हाथी था, अतएव सदा ही स्वछंद घूमता रहता था। अनेक अवसरों पर तो उसको नियंत्रित करना भी मुश्किल होता था। इधर दरबार में गजयुद्ध देखने के लिए भारी जनसमूह एकत्रित था। कहरकोप को दरबार में लाया जा रहा था। प्रवेश करते ही वह आपे से बाहर हो गया औऱ मदमस्त होकर बहुत उत्पात मचाने लगा। इस दौरान उसने अनेक लोगों को घायल कर दिया। इस लगातार भयावह होती जा रही स्थिति को देखकर, वहां खड़े युवा रतनसिंह से नहीं रहा गया।उसने तत्काल बड़ी बहादुरी से अनियंत्रित कहरकोप की सूंड पर चढ़कर, अपनी कटार का उपयोग करते हुए, उसे तुरंत अपने वश में कर लिया। जिस समय कहरकोप के कहर से शाही दरबार में ,अनेक साहसी कहे जाने वाले लोग यहां वहां दुबक रहे थे, ऐसे में युवा रतनसिंह के शौर्य को देखकर शाहजहां बहुत प्रसन्न हुआ। शाहजहां ने महेशदास को सलाह दी कि, वह अपने अनेक पुत्रों में से , रतनसिंह जैसे सुयोग्य पुत्र को ही अपना उत्तराधिकारी घोषित करे। अंततः रतनसिंह राजा महेशदास का उत्तराधिकारी घोषित हुआ।

1647 में शाहजहां ने जालोर के तत्कालीन राजा महेशदास की मृत्यु के बाद ,जालोर की सेना में बिखराव रोकने के उद्देश्य से ,वहां की जागीर वीर रतनसिंह को सौंपने का निर्णय किया। इस दौरान रतनसिंह वहां अपनी इस जागीर की देखरेख करते हुए, शाहजहां औऱ औरंगजेब के साथ अनेक युद्धों में अपनी वीरतापूर्ण हिस्सेदारी करता रहा।

इधर कुछ समय पश्चात राजा रतनसिंह, अपनी जागीर जालोर की आर्थिक तंगहाली से स्वयं को संकट में घिरा हुआ महसूस कर रहा था। तभी उसने दारा शिकोह (शाहजहां का बड़ा पुत्र) के माध्यम से अपना यह निवेदन शाहजहां के पास भिजवाया कि ,उसे जालोर के बदले कोई और राज्य दे दिया जाए, ताकि उसकी आमदनी से उसका ख़र्च चलता रहे।

इसी बीच अकस्मात रतलाम के तत्कालीन राजा पृथ्वीराज राठौड़ की मृत्यु हो जाने से रतलाम राज्य खाली हो गया था। चूंकि तब देश में रतलाम राज्य की गिनती , वीरों से संबंधित राज्य के रूप में होती थी। शाहजहां ने रतलाम के लिए रतनसिंह को सर्वथा उपयुक्त राजा माना।

1656 में रतलाम राज्य नई जागीर के अंतर्गत रतनसिंह को देने का शाही फरमान जारी कर दिया गया। 1656 के शुरू होते ही रतनसिंह , जालोर की सत्ता से मुक्त होकर, रतलाम में अपनी सत्ता स्थापित करने में लग गया। इस प्रकार वह 15 अप्रैल,1658 तक रतलाम का राजा रहा। उसकी मृत्यु के पश्चात, उसके 14 वंशजों ने रतलाम राज्य की राजसत्ता पर अपना राजपूती परचम फहराए रखा।

सामग्री में सहायक संदर्भ स्त्रोत:
1. पुस्तक, मेवाड़ का इतिहास
लेखक, देवनाथ पुरोहित।
2. पुस्तक, मुग़ल बादशाह औऱ राजपूत राजा
लेखक, भगवतीप्रसाद गुप्ता।
3. पुस्तक, रतलाम का प्रथम राज्य 1950,
लेखक, इतिहासकार डॉ रघुवीरसिंह।
4. श्री नटनागर शोध संस्थान सीतामऊ से , निजी रूप से जाकर प्राप्त की गई जानकारियां