अनिल त्रिवेदी
जीवन और भोजन दोनों एक दूसरे से इस कदर एकाकार हैं कि दोनों की एक दूसरे के बिना कल्पना भी नहीं की जा सकती हैं।जीवन हैं तो भोजन अनिवार्य हैं।भोजन के बिना जीवन की निरंतरता का क्रम ही खण्डित हो जाता हैं।जीवन श्रृखंला पूरी तरह भोजन श्रृखंला पर हीं निर्भर हैं।कुदरत ने धरती के हर हिस्से में किसी न किसी रूप में जीवन और भोजन की श्रृखंलाओं को अभिव्यक्त किया हैं।कुदरत का करिश्मा यह हैं कि जीवन और भोजन का धरती पर अंतहीन भंड़ार है ,जो निरन्तर अपने क्रम में सनातन रूप से चलता आया हैं और शायद सनातन समय तक कायम रहेगा।शायद इसलिये की जीवन का यह सत्य हैं कि जो जन्मा हैं वह जायगा।तभी तो जीव जगत में आता जाता हैं पर जीवन की श्रृखंला निरन्तर बनी रहती हैं।यहीं बात भोजन के बारे में भी हैं।भोजन की श्रृखंला भी हमेशा कायम रहती है,बीज से फल और फल से पुन:बीज।बीज के अंकुरण से पौधे तक और पौधे से फूल,फल और बीज तक का जीवन चक्र।इस तरह जीवन श्रृखंला और भोजन श्रृखंला एक दूसरे से इस तरह धुलेमिले या एकाकार हैं की दोनों का पृथक अस्तित्व ढूंढ़ना एक तरह से असंभव हैं।
जीवन की श्रृखंला एक तरह से भोजन श्रृखंला ही है।धरती पर जीवऔर वनस्पति के रूप में जो जीवन अभिव्यक्त हुआ है वह वस्तुत:मूलत:ऊर्जा की जैविक अभिव्यक्ति है।इसे हम यों भी समझ सकते हैं की जीव को जीवित बने रहने के लिये जो जैविक ऊर्जा आवश्यक है उसकी पूर्ति या तो जीव दूसरे जीव या वनस्पति को खाकर ही प्राप्त करता हैं।इस तरह जीवन और भोजन की श्रृखंला अपने मूल स्वरूप में एक ही है।जीव और वनस्पति की अभिव्यक्ति में नाम-रूप के ,स्वरुप और गुण धर्म के असंख्य भेद होने के बाद भी दोनों का मूल स्वरूप ऊर्जा का जैविक प्रकार ही हैं।यह भी माना जाता हैं की जीवन श्रृखंला वस्तुत:एक अंतहीन भोजन श्रृंखला ही हैं।एक जीव जीवित रहने के लिये दूसरे जीव को भोजन के रूप में खा जाता हैं।जैसे चूहे को बिल्ली और सांप खा जाते हैं,बिल्ली को कुत्ता और कुत्ते को तेंदुआ या शेर भी शिकार कर खा जाते हैं।कई तरह के कीड़े मकोड़ों को पक्षी निरन्तर खाते रहते हैं।बिल्ली कुत्ता जैसे जीव ,पक्षियों का शिकार कर लेते हैं।छिपकली जैसे प्राणी घर में निरन्तर कीट पतंगों का भक्षण करते ही रहते हैं।केवल जीवित प्राणी ही जीवित प्राणी को खाता हैं ऐसा ही नहीं हैं,कई जीव तो ऐसे हैं जों मृत प्राणियों की तलाश अपने भोजन के लिये करते ही रहते हैं।जैसे गिद्ध,कौव्वे।छोटी छोटी चिटियां तो बड़े छोटे मृत प्राणियों को धीरे धीरे पूरा कण कण कर चट कर जाती हैं।कौन कब जीव हैं और कब और कैसे, किसी का भोजन बन जाता हैं यह किसी को पता नहीं।यहीं इस श्रृखंला का अनोखा रहस्य हैं।जीव को अपने स्वरूप का भान नहीं होता कि वह जीव हैं या भोजन,अभी जीव के रुप में हलचल कर रहा था और अभी किसी और जीव के उदर में ,भक्षण करनेवाले जीव को भोजन के रुप में ऊर्जा प्रदान कर रहा होता हैं।इन श्रृखंलाओं की बात यहां पर हीं नहीं रूकती।किसी जीव के मरते ही उसका जीवन तो समाप्त हो जाता हैं पर मृत शरीर में कुछ ही धंटों में नये असंख्य सूक्ष्म जीवों का जन्म हों जाता हैं और मृत शरीर असंख्य सूक्ष्म जीवों का भोजन भंड़ारा बन जाता हैं।
जीवन श्रृखंला और भोजन श्रृखंला में एक दूसरे की भूमिका और एक दूसरे के स्वरूप में एकाएक परिर्वतन हो जाता हैं।इसके विपरित जीवन और भोजन एक दूसरे के जीवन चक्र और भोजन चक्र को परस्पर निरन्तर अस्तित्व में बनाये रखने में परस्पर एक दूसरे के पूरक की तरह भी सतत कार्यरत बने रहते हैं।उदाहरण के रूप में मधुमक्खियां अपना पूरा जीवन वनस्पति जगत के जीवन चक्र की निरंतरता कायम रखने में लगाती हैं।इसी क्रम में पक्षी या तरह तरह की छोटी बड़ी चिड़ियाएं कीट पतंगों का निरन्तर भक्षण कर वनस्पति जगत के जीवन चक्र को असमय नष्ट होने से बचाती हैं और अपने जीवन के लिये कीट पतंगों के रुप में भोजन की श्रृखंला पर निरर्भर बनी रहती हैं।हम सब को अभिव्यक्त करने वाली आधार भूत धरती के हर हिस्से में प्रचुर मात्रा में जीवन भी हैं और जीवन की ऊर्जा स्वरूप भोजन का अनवरत भंड़ारा भी हैं।फिर भी धरती पर अपने को सर्वज्ञ और सर्वश्रेष्ठ तथा सबसे शक्तिशाली समझने वाले मनुष्य अपने जीवन और भोजन को लेकर चिंतित हैं।धरती पर प्रकृति ने जिस रूप में जीवन और भोजन का चक्र प्राकृतिक स्वरूप में सनातन समय से कायम रखा हैं ।उसमें निरन्तर लोभ लालच से परिपूर्ण मानवीय हस्तक्षेप ने जीवन और भोजन की श्रृखंला की प्राकृतिक निरंतरता पर ही तात्कालिक संकट खड़ा कर दिया हैं।अब मनुष्य खुद ही चिंतातुर हैं कि इसका हल क्या और कैसे हो?
इस धरती पर अकेला मनुष्य ही है जो निरंतर जीवन श्रृखंला और भोजन श्रृखंला दोनों में अपने लोभ लालच और आधिपत्य स्थापित करने की चाहना से स्वनिर्मित संकटों को खड़ा कर परेशान और भयभीत बने रहने को अभिशप्त हो गया हैं। स्वयंभू शक्तिशाली और सर्वज्ञ मनुष्य आज के काल में अपने अंतहीन ज्ञान और गगन चुम्बी विज्ञान के होते हुए ,लगभग असहाय और अज्ञानी सिद्ध हो रहा है ।फिर भी प्रकृति,जीवन और भोजन की अनन्त श्रृखंला के प्राकृत स्वरूप को मानने,जानने,समझने और पहचाने को तत्पर नहीं हैं।जैव विविधता प्रकृति का प्राकृत गुण हैं।संग्रह वृत्ति मनुष्य का लोभ लालच मय जीवन दर्शन हैं।यहीं वह संर्धष हैं जिससे अधिकांश मनुष्य मुक्त नहीं हो पाते।मनुष्य प्रकृति का अविभाज्य अंश होते हुए भी प्रकृति से एकाकार नहीं हो पाता।जीवन और भोजन की अंतहीन श्रृखंला की एक महत्त्वपूर्ण कड़ी होते हुए भी मनुष्य अपने आपको श्रृखंला का अभिन्न अंश स्वीकार नहीं कर पाता।अपनी पृथक पहचान के बल पर एक नये संसार की रचना प्रक्रिया ने मनुष्य और प्रकृति की रचनाओं में तात्कालिक संर्धष धरती पर खड़ा किया है।जिसे समझना और स्वनियंत्रित करना मनुष्य मन के सामने खड़ी सनातन चुनौतीहैं।
महात्मा गांधी ने अपने जीवन से और विचारों से समूची मनुष्यता को अपनी चाहनाओं और लालसाओं को स्वनियंत्रित करने का एक सूत्र दिया ।जो जीवन और भोजन की सनातन प्राकृत श्रृखंलाओं को अपने प्राकृत स्वरूप में निरन्तर चलते रहने की व्यापकऔर व्यवहारिक समझ को समूची मनुष्यता के सम्मुख आचरणगत अनुभव के लिये रखा।गांधीजी का मानना था कि “हमारी इस धरती में प्राणी मात्र की जरूरतों को पूरा करने की अनोखी क्षमता हैं पर किसी एक के भी लोभ लालच को पूरा करने की नहीं।”मनुष्य ने अपनी आधुनिक जीवन शैली में अपने जीवन की जरूरतों का जो गैरजरूरी विस्तार किया हैं उस पर स्वनियंत्रण ही हमारे जीवन और भोजन की जरूरतों को सनातन काल तक पूरा करने को पर्याप्त हैं।
जीवन की श्रृखंला एक तरह से भोजन श्रृखंला ही है।धरती पर जीवऔर वनस्पति के रूप में जो जीवन अभिव्यक्त हुआ है वह वस्तुत:मूलत:ऊर्जा की जैविक अभिव्यक्ति है।इसे हम यों भी समझ सकते हैं की जीव को जीवित बने रहने के लिये जो जैविक ऊर्जा आवश्यक है उसकी पूर्ति या तो जीव दूसरे जीव या वनस्पति को खाकर ही प्राप्त करता हैं।इस तरह जीवन और भोजन की श्रृखंला अपने मूल स्वरूप में एक ही है।जीव और वनस्पति की अभिव्यक्ति में नाम-रूप के ,स्वरुप और गुण धर्म के असंख्य भेद होने के बाद भी दोनों का मूल स्वरूप ऊर्जा का जैविक प्रकार ही हैं।यह भी माना जाता हैं की जीवन श्रृखंला वस्तुत:एक अंतहीन भोजन श्रृंखला ही हैं।एक जीव जीवित रहने के लिये दूसरे जीव को भोजन के रूप में खा जाता हैं।जैसे चूहे को बिल्ली और सांप खा जाते हैं,बिल्ली को कुत्ता और कुत्ते को तेंदुआ या शेर भी शिकार कर खा जाते हैं।कई तरह के कीड़े मकोड़ों को पक्षी निरन्तर खाते रहते हैं।बिल्ली कुत्ता जैसे जीव ,पक्षियों का शिकार कर लेते हैं।छिपकली जैसे प्राणी घर में निरन्तर कीट पतंगों का भक्षण करते ही रहते हैं।केवल जीवित प्राणी ही जीवित प्राणी को खाता हैं ऐसा ही नहीं हैं,कई जीव तो ऐसे हैं जों मृत प्राणियों की तलाश अपने भोजन के लिये करते ही रहते हैं।जैसे गिद्ध,कौव्वे।छोटी छोटी चिटियां तो बड़े छोटे मृत प्राणियों को धीरे धीरे पूरा कण कण कर चट कर जाती हैं।कौन कब जीव हैं और कब और कैसे, किसी का भोजन बन जाता हैं यह किसी को पता नहीं।यहीं इस श्रृखंला का अनोखा रहस्य हैं।जीव को अपने स्वरूप का भान नहीं होता कि वह जीव हैं या भोजन,अभी जीव के रुप में हलचल कर रहा था और अभी किसी और जीव के उदर में ,भक्षण करनेवाले जीव को भोजन के रुप में ऊर्जा प्रदान कर रहा होता हैं।इन श्रृखंलाओं की बात यहां पर हीं नहीं रूकती।किसी जीव के मरते ही उसका जीवन तो समाप्त हो जाता हैं पर मृत शरीर में कुछ ही धंटों में नये असंख्य सूक्ष्म जीवों का जन्म हों जाता हैं और मृत शरीर असंख्य सूक्ष्म जीवों का भोजन भंड़ारा बन जाता हैं।
जीवन श्रृखंला और भोजन श्रृखंला में एक दूसरे की भूमिका और एक दूसरे के स्वरूप में एकाएक परिर्वतन हो जाता हैं।इसके विपरित जीवन और भोजन एक दूसरे के जीवन चक्र और भोजन चक्र को परस्पर निरन्तर अस्तित्व में बनाये रखने में परस्पर एक दूसरे के पूरक की तरह भी सतत कार्यरत बने रहते हैं।उदाहरण के रूप में मधुमक्खियां अपना पूरा जीवन वनस्पति जगत के जीवन चक्र की निरंतरता कायम रखने में लगाती हैं।इसी क्रम में पक्षी या तरह तरह की छोटी बड़ी चिड़ियाएं कीट पतंगों का निरन्तर भक्षण कर वनस्पति जगत के जीवन चक्र को असमय नष्ट होने से बचाती हैं और अपने जीवन के लिये कीट पतंगों के रुप में भोजन की श्रृखंला पर निरर्भर बनी रहती हैं।हम सब को अभिव्यक्त करने वाली आधार भूत धरती के हर हिस्से में प्रचुर मात्रा में जीवन भी हैं और जीवन की ऊर्जा स्वरूप भोजन का अनवरत भंड़ारा भी हैं।फिर भी धरती पर अपने को सर्वज्ञ और सर्वश्रेष्ठ तथा सबसे शक्तिशाली समझने वाले मनुष्य अपने जीवन और भोजन को लेकर चिंतित हैं।धरती पर प्रकृति ने जिस रूप में जीवन और भोजन का चक्र प्राकृतिक स्वरूप में सनातन समय से कायम रखा हैं ।उसमें निरन्तर लोभ लालच से परिपूर्ण मानवीय हस्तक्षेप ने जीवन और भोजन की श्रृखंला की प्राकृतिक निरंतरता पर ही तात्कालिक संकट खड़ा कर दिया हैं।अब मनुष्य खुद ही चिंतातुर हैं कि इसका हल क्या और कैसे हो?
इस धरती पर अकेला मनुष्य ही है जो निरंतर जीवन श्रृखंला और भोजन श्रृखंला दोनों में अपने लोभ लालच और आधिपत्य स्थापित करने की चाहना से स्वनिर्मित संकटों को खड़ा कर परेशान और भयभीत बने रहने को अभिशप्त हो गया हैं। स्वयंभू शक्तिशाली और सर्वज्ञ मनुष्य आज के काल में अपने अंतहीन ज्ञान और गगन चुम्बी विज्ञान के होते हुए ,लगभग असहाय और अज्ञानी सिद्ध हो रहा है ।फिर भी प्रकृति,जीवन और भोजन की अनन्त श्रृखंला के प्राकृत स्वरूप को मानने,जानने,समझने और पहचाने को तत्पर नहीं हैं।जैव विविधता प्रकृति का प्राकृत गुण हैं।संग्रह वृत्ति मनुष्य का लोभ लालच मय जीवन दर्शन हैं।यहीं वह संर्धष हैं जिससे अधिकांश मनुष्य मुक्त नहीं हो पाते।मनुष्य प्रकृति का अविभाज्य अंश होते हुए भी प्रकृति से एकाकार नहीं हो पाता।जीवन और भोजन की अंतहीन श्रृखंला की एक महत्त्वपूर्ण कड़ी होते हुए भी मनुष्य अपने आपको श्रृखंला का अभिन्न अंश स्वीकार नहीं कर पाता।अपनी पृथक पहचान के बल पर एक नये संसार की रचना प्रक्रिया ने मनुष्य और प्रकृति की रचनाओं में तात्कालिक संर्धष धरती पर खड़ा किया है।जिसे समझना और स्वनियंत्रित करना मनुष्य मन के सामने खड़ी सनातन चुनौतीहैं।
महात्मा गांधी ने अपने जीवन से और विचारों से समूची मनुष्यता को अपनी चाहनाओं और लालसाओं को स्वनियंत्रित करने का एक सूत्र दिया ।जो जीवन और भोजन की सनातन प्राकृत श्रृखंलाओं को अपने प्राकृत स्वरूप में निरन्तर चलते रहने की व्यापकऔर व्यवहारिक समझ को समूची मनुष्यता के सम्मुख आचरणगत अनुभव के लिये रखा।गांधीजी का मानना था कि “हमारी इस धरती में प्राणी मात्र की जरूरतों को पूरा करने की अनोखी क्षमता हैं पर किसी एक के भी लोभ लालच को पूरा करने की नहीं।”मनुष्य ने अपनी आधुनिक जीवन शैली में अपने जीवन की जरूरतों का जो गैरजरूरी विस्तार किया हैं उस पर स्वनियंत्रण ही हमारे जीवन और भोजन की जरूरतों को सनातन काल तक पूरा करने को पर्याप्त हैं।