समाज में अक्सर उपेक्षित रहने वाले वर्ग के लोग, विशेषकर सेक्स वर्कर्स, दुर्गा पूजा के दौरान एक अद्वितीय महत्व रखते हैं। जबकि सामान्य जीवन में उन्हें तिरस्कृत किया जाता है, वही लोग इस पर्व में एक विशेष भूमिका निभाते हैं। बंगालियों का सबसे बड़ा त्योहार, दुर्गा पूजा, उनके बिना अधूरा माना जाता है, क्योंकि उमा की प्रतिमा बनाने के लिए आवश्यक मिट्टी केवल उनके क्षेत्र से प्राप्त होती है। यह परंपरा सदियों पुरानी है।
पवित्र मिट्टी का महत्व
ऐसा मान्यता है कि जब कोई पुरुष वेश्यालय में जाता है, तो वह अपने जीवन के सभी गुणों को त्याग देता है। शास्त्रों के अनुसार, इसीलिए वेश्यालय की भूमि को पवित्र माना गया है और उमा का निर्माण उसी मिट्टी से होता है। इस परंपरा की जड़ें समाज में गहरी हैं, जहां पूजा के समय लोग समाज से वंचित वर्ग के पास जाते हैं, जबकि सामान्य जीवन में उनसे दूरी बनाए रखते हैं।
नौ रूपों की पूजा
शास्त्रों के अनुसार, दुर्गा के नौ रूप, जिन्हें नर्तकी, कपालिका, धोपानी, नापीतानी, ब्राह्मणी, शूद्राणी, गोलिनी, मालिनी और पतिता के नाम से जाना जाता है, विभिन्न जातियों और वर्णों का प्रतीक हैं। इनमें से ‘पतिता’ का रूप कामवासना का प्रतिनिधित्व करता है, जिससे यह प्रथा शुरू होने का संकेत मिलता है।
पौराणिक कथाओं का प्रभाव
कहा जाता है कि इस प्रथा की उत्पत्ति पौराणिक कथाओं से भी जुड़ी है। ऋषि विश्वामित्र की तपस्या को भंग करने के लिए इंद्रदेव ने अप्सरा मेनका को भेजा था, जो इस कथा का भी महत्वपूर्ण हिस्सा है।
महिलाओं की शक्ति का सम्मान
देवी दुर्गा नारी शक्ति का प्रतीक हैं और ये प्रथा सभी स्तरों पर महिलाओं की शक्ति का सम्मान करने के लिए आरंभ की गई है। यह उन सभी को एक साथ लाने का एक साधन है, जो समाज के विभिन्न वर्गों में स्थित हैं, और यह दर्शाता है कि देवी की पूजा में सभी का योगदान महत्वपूर्ण है।
इस प्रकार, दुर्गा पूजा न केवल धार्मिक आस्था का प्रतीक है, बल्कि यह समाज के विभिन्न वर्गों को एकजुट करने और नारी शक्ति का सम्मान करने का माध्यम भी है।