सत्ता के बिना संघ-भाजपा की वैचारिक जीत

Ayushi
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धर्मेंद्र पैगवार

पश्चिम बंगाल के चुनाव नतीजे आ गए हैं पूरे देश से लेकर दुनिया में इनकी समीक्षा हो रही है। ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस तीसरी बार लगातार सत्ता में आ गई है। शून्य से शुरुआत करने वाली भाजपा ने बंजर भूमि पर जिस तेजी से अपनी सीटों में इजाफा किया ऐसे उदाहरण देश के चुनावी इतिहास में काफी कम मिलते हैं। 2016 के चुनाव में भाजपा के सिर्फ तीन विधायक थे अब वहां पर भाजपा के 77 विधायक हैं। तृणमूल कांग्रेस ने 213 सीट जीती हैं।

भले ही भाजपा वहां सरकार बनाने में विफल रही हो लेकिन वैचारिक रूप से उसकी धुर विरोधी कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टी दोनों बंगाल में लगभग खत्म हो गई है। इन दोनों ही पार्टियों को एक भी सीट नहीं मिली है। जबकि 2016 के चुनाव में कांग्रेस के 44 और कम्युनिस्ट पार्टी के 26 विधायक पश्चिम बंगाल में थे। सोशल मीडिया पर मध्य प्रदेश समेत पूरे देश के कांग्रेसी पश्चिम बंगाल में भाजपा के सत्ता से दूर रहने पर जब खुशियां मना रहे थे तब उन्हें कांग्रेस की बर्बादी का इल्म नहीं था। जब अंतिम परिणाम आए तो कांग्रेस शून्य थी। उस राज्य में जहां के सांसद लोकसभा में विपक्ष के नेता है। और उस राज्य में भी जहां के नेता को कुछ साल पहले कांग्रेस ने राष्ट्रपति बनाया था।

भाजपा ने 2016 के मुकाबले 25 गुना ज्यादा सफलता हासिल की है। इसके पीछे लंबे संघर्ष की कहानी है। भाजपा और संघ परिवार का पूरे देश में मुख्य मुकाबला कांग्रेस और कम्युनिस्टों से रहा है। पिछले 10 सालों में देश में वैचारिक संघर्ष बहुत तेजी से बढ़ा है। केंद्र में नरेंद्र मोदी की ताजपोशी के बाद कम्युनिस्ट विचारधारा ने जेएनयू से लेकर शाहीन बाग तक टुकड़े टुकड़े गैंग के समर्थन में जो कुछ भी किया वह पूरा देश जानता है। इसमें बहुत अच्छा पुराने कांग्रेसी भी पीछे नहीं रहे। भले ही बाटला हाउस एनकाउंटर हो य धारा 370 और 35 ए जैसे मुद्दे। संघ परिवार आजादी के बाद से अपने विचार को लेकर ही आगे बढ़ रहा है।

संघ ने सत्ता प्राप्ति से ज्यादा विचार को महत्व दिया है। यही वजह रही कि पश्चिम बंगाल में भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय और दिलीप घोष की जोड़ी ने पिछले 7 सालों में जमीन पर रहकर जो मेहनत की उसने कांग्रेस और कम्युनिस्टों दोनों को जड़ से उखाड़ दिया। इन मौजूदा चुनावों का सबसे ज्यादा रोचक परिणाम दार्जिलिंग जिले की नक्सलबाड़ी सीट से आया है। जो नक्सलवाड़ी हिंसक क्रांति की जनक थी उस नक्सलवाड़ी से संघ परिवार द्वारा पोषित भाजपा का उम्मीदवार चुनाव जीत गया है। मेरे ख्याल से वैचारिक और बौद्धिक लड़ाई में इस जीत की सर्वाधिक चर्चा जरूरी है।

टीएमसी की सत्ता में वापसी नंदीग्राम से ममता की हार से ज्यादा बड़ी बात कम्युनिस्टों की नक्सलबाड़ी में पराजय है। नक्सलबाड़ी में मार्च 1967 में बिगुल नामक किसान ने जो बिगुल बजाया था वह हिंसक क्रांति का दौर 2021 में थम गया। चारू मजूमदार और कानू सान्याल जैसे हिंसक विचारक पहले ही मौत के मुंह में जा चुके हैं। और अब नक्सलबाड़ी में भाजपा का परचम लहरा रहा है उस भाजपा का जो कम्युनिस्टों की सबसे बड़ी दुश्मन है। कम्युनिस्टों को ना तो कांग्रेस से गुरेज है और ना ही मुस्लिम लीग से। उनकी सबसे बड़ी दुश्मन भाजपा और आर एस एस ए है। ठीक उसी प्रकार संघ के विचार को सर्वाधिक नुकसान भी कम्युनिस्टों ने पहुंचाया है। इतिहासकार और कम्युनिस्ट पत्रकारों ने संघ की जितनी लानत मलानत की है उतनी कोई ओर नहीं कर सका।

इस सब के बावजूद कम्युनिस्टों के गढ़ पश्चिम बंगाल में संघ धीरे धीरे आगे बढ़ता रहा। कभी बांग्लादेश से आए दिवंगत हो चुके तपन सिकदर बंगाल में इस विचारधारा के अगुवा रहे। इसके बाद 2013 से भाजपा के जरिए संघ ने केसरिया गमछा डाले कैलाश विजयवर्गीय को बंगाल भेजा। कैलाश विजयवर्गीय की जड़े विद्यार्थी परिषद से लेकर संघ में काफी गहरी हैं। इंदौर में एक साधारण परिवार में जन्मे और छोटी बस्ती नंदा नगर से सार्वजनिक जीवन की शुरुआत करने वाले कैलाश विजयवर्गीय की इमेज एक कट्टर विचारक के साथ तेज तर्रार नेता की है। यही वजह रही कि पिछले 7 सालों की मेहनत में भाजपा लगातार पश्चिम बंगाल में आगे बढ़ती रहे।

कम्युनिस्टों और बाद में तृणमूल कार्यकर्ताओं के आतंक के खिलाफ जो लोग घर से नहीं निकलते थे वह विजयवर्गीय की आक्रमक शैली के प्रभाव में आकर अब जवाब भी देने लगे हैं। पश्चिम बंगाल से कम्युनिस्टों का सफाया सिर्फ चुनावी राजनीति से हो गया ऐसा नहीं है उनका विचार भी धीरे-धीरे खत्म हो रहा है। वर्ष 2017 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का कोयंबटूर में अधिवेशन हुआ था। इस अधिवेशन में संघ ने पश्चिम बंगाल में हिंदुओं की घटती संख्या और कट्टरवादी तत्वों के बढ़ने पर चिंता जताई थी।

यह वह साल था जब ममता बनर्जी की सरकार 2017 में पश्चिम बंगाल की पाठ्य पुस्तकों में इंद्रधनुष को राम धनुष कहने पर हटा रही थी। बंगाली में आकाश में बनने वाले इंद्रधनुष को राम धनुष कहा जाता है। ममता सरकार ने 2017 में पाठ्य पुस्तकों में इसे हटा कर रंग धनुष कर दिया। अकाशी को आसमान लिख दिया गया। यह दोनों शब्द बांग्ला में नहीं थे। लेकिन आसमानी शब्द पड़ोसी देश बांग्लादेश की उर्दू से ले लिया गया। भले ही राम नाम को लेकर ममता बनर्जी के विचार सोशल मीडिया के इस दौर में सार्वजनिक हुए हो लेकिन और राम नाम को लेकर उनके मन में बहुत कुछ पहले से चल रहा था जो 2017 में सामने आया था।

संघ तभी से सचेत था और इसी को ध्यान में रखते हुए वह काम करने वाले प्रचारकों की बड़ी टीम लगाई गई। आपको यह जानकर आश्चर्य हो सकता है कि अकेले कोलकाता में इस वक्त 3032 सरस्वती शिशु मंदिर संचालित है। पूरे बंगाल में धीरे धीरे विद्या भारती का काम आगे बढ़ा है। पश्चिम बंगाल में नंदीग्राम से लेकर नक्सलवाड़ी तक की जीत के मायने बहुत अलग है। पूरे देश में जब सत्ता हथियाने सत्ता नहीं पाने और सत्ता चले जाने को लेकर बहस चल रही है उस दौर में नक्सलबाड़ी से कम्युनिज्म के खत्म होने को लेकर तमाम वामपंथी विचारक चुप है।