पहले नोट जेब में भरते थे, फिर थैले में, फिर फावड़े से सोरते थे, अब डम्फर में भरते हैं निगम वाले, भगवान से भी नहीं डरते हैं…

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जनता की गाढ़ी कमाई को लगा रहे हैं चूना। वो कुछ नहीं कर रहे वर्षों से जिनको हमने पद के लिए चुना। विडम्बना ये रही कि बिना काम के भी काम की फाइलें चल गई। नकली बिलों पर भी उनके भुगतान की मद निकल गई। डकार गए करोड़ों की रकम फिजूल ही निकम्मे ठेकेदार। उनके इस कार्य में सहयोग करते रहे निगम के अनेक गद्दार। पूरे ही कुए में भांग पड़ी है या कहें कि ये तो कुआ ही भांग का है।

निगम ऐसा संस्थान बन गया जहाँ पर आने वाला पद ही शर्त मांग का है। पहले नोट जेब में भरते थे, फिर थैले में, फिर फावड़े से सोरते थे अब डम्फर में भरते हैं। वहां की जिसको हवा लगी वो हवा हवा में ही तो सारे काम करते हैं। भ्रष्टाचार के इस मुकाम पर विराजित किसी नेक इंसान के शिष्टाचार की जरूरत है। इंदौर को भी अब मुम्बई महानगरपालिका वाले अतीत के किसी खैरनार की जरूरत है। अधिकारी अधिकार मानकर वसूलते हैं और उनको संरक्षण देने वाले अपना हिस्सा पाकर मौन हो जाते है। जन जन की कमाई के रखवाले अवैध हिस्सेदारी में न जाने कौन कौन हो जाते है । जनता कर न चुका पाए तो सख्ती ऐसी की उनकी हो जाती है ऐसी की तैसी। पीली गाड़ी के बाउंसर गरीबों की दुकान उठा लाते हैं वैसी की वैसी।

कमाई के ढेर साधन और शासन से मिलती राशि नगर निगम की वैध आवक का जरिया है। प्लास्टर में दफन दीवार में ठेकेदार लगा देते एक चार का सरिया है। घटिया निर्माण और कमजोर सामग्री ही तो भ्रष्टाचार की पहचान है। खुद कमाए और रसूखदार पर लुटाए तो बढ़ती शान है। बंटवारे में तो सारे चोर चोर मौसेरे भाई बन जाते हैं । चोट्टे भी नागरिकों पर रौब झाड़ते तो उनके सीने तन जाते हैं। सुनवाई करते नहीं और स्थायी निर्माण करते समय रोकने हेतु पांच मिनट का समय देते हैं। रिश्वत के लोभी डराकर , धमकाकर , ऊपर से , नीचे से , हर तरीके से गांधी के फोटो लेते हैं। नेता दोमुंहा होता है ,जनता को बातों से संतुष्ट करने का खेल खेलता है और अधिकारी को उस खेल का मोहरा बनाता है।

अपनों के बचाव और परायों पर खाते ताव का नियम दोहरा बनाता है। जितना विकास और निर्माण होगा उतना रुपया मिलेगा ये नीति आम रणनीति का हिस्सा है। हर तरफ तो अब समझ आने लगा रिश्वतखोरी का किस्सा है। कृपा से उपकृत अपात्र भी पहले इंजीनियर फिर नियर और डियर बनते है। माथे पर हाथ तगड़ा होता है तो फिर हर किसी के सामने उनके सीने तनते हैं । व्यवस्था में बदलाव का स्वांग रचता हर कोई है पर अवस्था बदलने नही देती है। फरेब की फसल हेतु कुटिलता के किसान कर रहे ढकोसलों की खेती है । चुनाव के वायदे और चेहरे बस तब तक ही अच्छे लगते हैं।

जीत के जुनून में उलझे फिर मिलने लगते अर्थ रबड़ी के लच्छे हैं। कब तक मोदी जी की कमाई को हम खाएंगे। उनकी ख्याति पर अपना मोहरा जिताएंगे। वो भी अपनी कर्मठता व नीति से नेता बने हैं जिसको देख लेंगे उसको जिताएंगे। हम भी अपने कर्म को महत्व दें तो अच्छा है वरना कब तक उनको भुनाएंगे। निगम शहर भर के नागरिकों के पसीने से सिंचित संस्था है इसपर अन्याय को नागरिक नहीं पचाएँगे। जो नोच नोचकर खा रहा इसको चील कव्वा बनकर उनके चेहरे उजागर हुए तो कोई नहीं बचाएंगे।