विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस विशेष, ‘बंधन में अभिव्यक्ति, ज़िम्मेदार मौन’

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राष्ट्र के निर्माण में या चाहे राष्ट्र के सुनियोजित संचालन में, देश की संरचना गढ़ने में या चाहे देश की व्यवस्थाओं में, लोकतंत्र की स्थापना में या चाहे सुचारू समन्वय में, सत्ता पर नियंत्रण में या चाहे सत्ता के क्रियान्वयन में, व्यवस्था के पैनेपन में या चाहे अव्यवस्था के आघात में, जन की जागरुकता में या चाहे जन के मुखर होने में, हर भूमिका में प्रेस यानी मीडिया का अपना अतुलनीय महत्त्व है, जिसके साथ ही वैश्विक लोकतंत्र की असल स्थापना निहित है।

वैश्विक रूप से हर राष्ट्र का अपना एक मीडिया अनुशासन है, मीडिया की स्वीकार्यता भी है और महत्ती आवश्यकता भी। किंतु बीते कुछ दशकों में मीडिया की सुरक्षा भी चिंता का विषय बना हुआ है और उस पर होने वाले हमलों की संख्या में अभिवृद्धि हुई है।
इंटरनेशनल फेडरेशन ऑफ़ जर्नलिस्ट की रिपोर्ट के अनुसार ‘ड्यूटी के दौरान मारे गए मीडिया पेशेवरों की नवीनतम सूची के अनुसार वर्ष 2022 में 68 मीडिया कर्मचारी मारे गए थे। इनमें से बहुत कम मामलों की जाँच की गई है।’

साथ ही IFJ मीडिया के आपातकाल की ओर भी इशारा करता है, जिसके कारण 2022 में कम से कम 375 पत्रकार और मीडियाकर्मी सलाखों के पीछे गए हैं। पत्रकारों के लिए चीन तो दुनिया के सबसे बड़े जेलर के रूप में उभरा है। ये आँकड़े यह भी दर्शाते हैं कि पूरी दुनिया में पत्रकारों की स्वतंत्रता कहीं न कहीं बाधित है। चाहे चीन में मीडिया पर हो रहे लगातार हमले हों, या हॉन्गकॉन्ग पर बाधित होती मीडिया की स्वतंत्र शामिल हो अथवा भारत में हो रही पत्रकारों की हत्याओं का ज़िक्र किया जाए, सभी जगह एक बात उभयनिष्ठ है कि पत्रकार और प्रेस विश्व भर में खतरों से खेल रहे हैं पर असुरक्षित रहकर।

अंतर्राष्ट्रीय संगठन और मीडिया 3 मई को विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस की 30 वीं वर्षगाँठ मनाने की तैयारी कर रहे हैं, ऐसे कालखण्ड में इंटरनेशनल फेडरेशन ऑफ़ जर्नलिस्ट्स (IFJ) का कहना है कि प्रेस की स्वतंत्रता ने एक और कदम पीछे ले लिया है और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता अन्य मानवाधिकारों की तरह परिचालन भी नहीं कर रही।

हाल ही में वियतनामी पुलिस ने 13 अप्रैल को बैंगकॉक, थाईलैंड में अपने घर से कथित अपहरण के तीन दिन बाद ब्लॉगर डुओंग वान थाई की हिरासत की पुष्टि की है। यानी विश्व के लगभग हर देश में पत्रकारों पर सत्ताई शिकंजा कंसा हुआ है, पत्रकार और मीडिया कहीं भी स्वतंत्र नहीं नज़र आती। जबकि प्रेस की स्वतंत्रता मज़बूत लोकतंत्र की आधारशिला है।

भारत ही नहीं अपितु विश्व के कई देशों में पत्रकारों पर खतरा बना हुआ है, हत्याएँ आम बात हो चली है। जान और माल की बली तो पत्रकारों की रोज़मर्रा की बात है, इसके चर्चे भी वैसे ही गौण हो जाया करते हैं, जैसे सऊदी के पत्रकार जमाल खशोगी, भारतीय पत्रकार गौरी लंकेश और उत्तरी आयरलैंड की पत्रकार लायरा मक्की की हत्याओं का ज़िक्र भी ग़ायब हो चुका है। इसके अतिरिक्त भारत देश में पत्रकारों पर हर कभी होते हमलों ने एक बार फिर प्रेस की सुरक्षा पर बड़ा सवाल खड़ा कर दिया है।

सवालों का ढेर तो ऐसा है मानो पूरी पत्रकार बिरादरी ही बारूद के ढेर पर खड़ी हो। पत्रकारों पर होते हमले, हत्याओं का दौर, दुर्घटनाओं का दलदल , फ़र्ज़ी केसों में फँसा कर बदले की मानसिकता, यही सब जब पत्रकारों के साथ घटित होता है, तब जाकर आवश्यकता पत्रकार सुरक्षा कानून की भी होती है। बहरहाल, जब आज के दौर में हमला होता है लोकतंत्र के चौथे स्तंभ पर, तब प्रेस की आज़ादी संकट में नज़र आती है।सरकारों से आग्रह ही होता है कि कम से कम मीडिया को तो सुरक्षित रख पाने का प्रबंध हो, अन्यथा ढाक के तीन पात की तर्ज पर आम आदमी भी असुरक्षित होने लग जाएगा।

लोकतंत्र का मानद विपक्ष ही यदि कमज़ोर हो गया तो सत्ता का निरंकुश होना तय है, यहाँ न केवल सत्ता बल्कि राजनीति के अन्य आयाम भी मीडिया की सुरक्षा पर एकजुट नहीं हैं, जबकि विपक्ष की भूमिका का असल निर्वहन तो मीडिया के माध्यम से ही होता है। वैश्विक आलोक में असुरक्षित पत्रकार बिरादरी कैसे अपनी जनता के सवालों को सत्ता के शीश महल से पूछेगी? कैसे सत्ता पर एक नकेल जनता की रखी जाएगी, क्योंकि अधिकांश देशों में सत्ता को बेदखल करने की कोई व्यवस्था जनता के हाथ में नहीं है! नियत समय के लिए चुन लिए जाने पर सत्ताधीश स्वतः ही जनता के मौलिक अधिकारों का लगातार हनन करते रहे हैं पर जनता बेचारी केवल अपनी भड़ास बोलकर, धरने-प्रदर्शन करके या फिर मीडिया के माध्यम से ही निकाल सकती है।

वह भी बंद हो गया तो फिर मदमस्त हाथी की तरह सत्ता का निरंकुश होना तय है। असल जनतंत्र की स्थापना के लिए मीडिया की वास्तविक भूमिका जन के स्वर को मुखर करने की है परंतु सुरक्षा के अभाव में मीडिया तंत्र भी मौन होकर बैठने लगा है और यह स्थिति आदर्श लोकतंत्र की स्थापना में बाधक है। बात यदि भारत की करें तो आज मौजूदा हालात तो पूरे भारत में मीडिया की सुरक्षा और स्वतंत्रता को कहीं न कहीं कटघरे में खड़ा करने वाले ही हैं, बावजूद इसके, रात के बाद सुबह आएगी, उसकी उम्मीद नहीं छूटती। सरकारों से भी यही उम्मीद बनी रहती है कि मीडिया को स्वतंत्र करें, सुरक्षित करें। क्योंकि इसको करने से राष्ट्र की उत्तरोत्तर प्रगति सरल, सहज और सर्वमान्य होगी।