रज्जू बाबू न होते तो प्रदेश को नहीं मिलता पहला ट्रेंड कार्टूनिस्ट

Akanksha
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इंदौर : श्रद्धेय राजेन्द्र माथुर जी ने हिंदी पत्रकारिता को अपने होने से किस किस तरह समृद्ध किया, यह एक गौरवशाली इतिहास है। उनके साथ काम कर चुके असंख्य साथियों ने अपने संस्मरणों से इस इतिहास को लगातार सिंचित-पल्लवित किया है।
यह माथुर साहब की विशेषता थी कि एक ओर वे अपने कृतित्व से पत्रकारिता के अपूर्व विकास की आश्चर्यकारी इबारत गढ़ते रहे, दूसरी ओर इस अनुष्ठान से जुड़ने के लिए संभावनाशील नव प्रतिभाओं के द्वार भी खोलते गए।
उनके द्वारा हिंदी के प्रतिष्ठित अखबार “नईदुनिया” के लिए चयनित होना मुझ नवोदित कार्टूनिस्ट के लिए खुशी और चुनौतियों से लबरेज़, एक रूपांतरकारी अवसर रहा ।
स्वदेश अखबार के मामाजी स्व.माणिकचंद वाजपेयी ने जिस बाल प्रतिभा को पहचानकर उसे बाल स्तम्भ”फुलबगिया ” का सम्पादन दायित्व और दैनिक कार्टून योगदान का भार सौंपा था, रज्जू बाबू ने उसे नईदुनिया में स्टाफ़ कार्टूनिस्ट की ज़िम्मेदारी देकर बड़ा विश्वास किया था।
मेरे चयन की प्रक्रिया भी बेहद दिलचस्प रही। तीन पक्के दोस्तों के ठहाकों से उपजी यह उपलब्धि, मेरे जीवन की स्वर्णिम याद है।
हुआ यूँ कि पोस्ट ग्रेजुएशन के बाद दिल्ली प्रेस में करीब डेढ़ साल स्टाफ में काम करने के बाद मैं वापस इंदौर आ गया था। गुजराती कॉलेज के मेरे गुरु, मेरी प्रेरणा कवि-प्रोफेसर डॉ. सरोजकुमार जी मुझे स्नेह करने के साथ सदैव मेरी प्रगति पर नज़र रखते रहे।मेरा सौभाग्य है कि आज भी वे उतना ही अधिकार और प्रेम रखते हैं।
बहरहाल जब उन्हें मेरी वापसी का पता चला तो उन्होंने कहा , फलां तारीख को रवींद्र नाट्यगृह में अपने कुछ कार्टून लेकर आ जाना। वहां तुम्हे सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार शरद जोशीजी से मिला देंगे। वे इन दिनों बम्बई से हिन्दी एक्सप्रेस पत्रिका निकाल रहे हैं।
शरद जी और सरोज सर घनिष्ठ मित्र हैं, यह मुझे मालूम था।तय समय पर कार्टून लिए मैं नाट्यगृह पहुँच गया। वहां कोई नाटक मंचित हो रहा था। दर्शक दीर्घा में सर ने मुझे अपने पास बैठा लिया। पास ही शरद जी भी थे, जिन्हें देख मैं परम रोमांचित हो गया। आखिर वे व्यंग्य की दुनिया के शहंशाह थे। और यह बंदा उनका फैन ।
खैर जब मध्यांतर हुआ, बत्तियां जलीं, सर ने उनसे कहा- भाई, ये देवेंद्र है। कार्टून बनाता है। हिंदी एक्सप्रेस के लिए देखो।
शरद जी ने कार्टून का पुलिंदा मुझसे ले लिया और एक-एक कार्टून देखने लगे।
वे मुस्कुराए ।
यह अच्छा है।यह हम छापेंगे।
यह भी अच्छा है।
यह भी अच्छा तो है, मगर इसमें काली स्याही का ज़्यादा प्रयोग है। और हमारी प्रिंटिंग मशीन इतनी अच्छी नहीं है। इसे बिगाड़ देगी।
और वह कार्टून शरद जी मुझे लौटाने लगे। तभी न जाने कहाँ से एक हाथ आया और उसने बीच में ही वह कार्टून ले लिया।
मैं चौंक उठा। वे राजेन्द्र माथुर जी थे, जो अंधेरे में आकर बैठ गए थे। उन्होंने कार्टून लेकर सरसरी नज़र उस पर डाली और मुझसे कहा-
यह कार्टून हम छापेंगे श्रीमान। हमारी मशीन बढ़िया क्वालिटी की है। आप कल नईदुनिया आ जाइए।
और उन तीनों मित्रों के परिहास और उसके बाद उभरे ठहाके ने न सिर्फ मेरा जीवन बनाया, बल्कि मध्यप्रदेश में कार्टून का अपूर्व इतिहास ही लिख दिया।
माथुर साहब तरल सरलता, विद्वत्ता, कड़ी मेहनत, हास्यप्रियता और सह अस्तित्व की विशेषताओं का दुर्लभ और मोहक मिश्रण थे। सच तो यह है कि
दूसरों को आगे बढ़ता देख खुश होने की, राहुल बारपुते जी की जिन विशेषताओं का ज़िक्र वे किया करते थे वास्तव में वे ही विशेषताएं खुद रज्जू बाबू में भी थीं।
तो साहब, दूसरे दिन मैं ठीक समय पर नईदुनिया पहुँच गया। सरोज सर की हिदायत जो थी। ऊपर लायब्रेरी में महेश जोशी जी, गुलाब जैन साहब और अशोक जोशी जी विराजमान थे। और भी लोग थे। मेरे लिए तत्काल कोई टेबल न जुटने पर रज्जू बाबू ने अशोक जोशी से कहा कि अपनी फाइलें समेटकर आधी टेबल देवेन्द्र नामक जीव को इस्तेमाल करने दें, आज से ये अखबार के लिए कार्टून बनाएँगे।
साधनों के होने न होने या कम होने का असर भला काम पर क्यों पड़े। उनका यह उसूल मेरे लिए सदा का सबक बन गया। वे खुद बारिश में पूरे भीगे आते और खुद को सुखाने के पचड़ों में पड़ने के बजाय उसी दशा में सम्पादकीय लिखने बैठ जाते थे।
उनकी चमकती आंखें और निर्मल हँसी कौन भूल सकता है। उन्होंने मुझे भरपूर प्रोत्साहित करके तैयार किया। जब मैं कार्टून बनाकर उन्हें दिखाता, किलकारी भरकर कहते-अहा, बढ़िया है। इसे अगले पेज के लिए दे आइए।
उन्होंने पहले ही दिन से पहले पेज पर कार्टूनों को स्थान दिया। उन कार्टूनों ने आम जनता से लेकर दफ़्तरों और राजनीतिक गलियारों में किस तरह हलचल मचाई थी, यह एक अलग कहानी है ।
हाँ, एक मजेदार बात और। एक दिन में कई कार्टून देने की अपनी चुस्त आदत से मजबूर मैं रज्जू बाबू को एक कार्टून सौंपने के कुछ ही देर बाद जब दूसरा और फिर तीसरा कार्टून देने पहुँचता तो वे हँसकर कहते- आप जिस गति से कार्टून बना रहे हैं श्रीमान, हम उस गति से छाप नहीं पाएँगे। आहिस्ता, ज़रा आहिस्ता।

बाद में उनके कार्यकक्ष के बाहर ही मेरी टेबल लग गई। जहां रज्जू बाबू और (अभयजी भी) बड़ी रुचि से मुझे काम करते देखते थे। मैंअकिंचन शुरू शुरू में संकोच से गड़ जाता था। बाद में इस गतिविधि को मैं ऊर्जा का लकी डोज़ मानकर ग्रहण करने लगा।
रज्जू बाबू के साए तले प्रतिभा पंख पसार ही रही थी की अचानक वो दिन आ गया ।
उन्हें नवभारत टाइम्स के संपादक का दायित्व संभालने दिल्ली जाना था। उनकी बिदाई का कार्यक्रम नईदुनिया प्रिंटरी के पास आयोजित था। एक बड़ा जनसमूह इकट्ठा तो हुआ था, हंसते हंसते अपने रज्जू बाबू को प्रगति पथ पर आगे बढ़ने की बधाई और विदाई देने, लेकिन सबकी आँखें सजल थीं। मानो कृष्ण की गोकुल से विदाई का दृश्य हो।
नरेंद्र तिवारी जी, राहुल जी, अभय जी एक से एक प्रखर वक्ता और निपुण शब्दसाधक। किन्तु सबकी वाणी भावातिरेक से अवरुध्द थी।
रज्जू बाबू कागज़ के अलावा दिलों पर भी बखूबी लिखते थे। यह बात सौ फीसदी सच है।

डॉ. देवेन्द्र शर्मा
व्यंग्यचित्रकार