(दो साल पूर्व प्रकाशित एक आलेख के प्रस्तुत संपादित अंशों को मुजफ्फर नगर के एक निजी स्कूल में एक टीचर द्वारा एक मुस्लिम छात्र को बारी-बारी से थप्पड़ मारने के लिए क्लास के बाकी छात्रों को बुलाने की घटना के बाद उठे विवाद के संदर्भ में पढ़ा जा सकता है। )
क्या ही ख़तरनाक सोच है कि हुक्मरान ‘डिजिटल इंडिया’ की नई पीढ़ी को विभाजन के दौरान हुई हिंसा की जानकारी देकर उसे एक वर्ग विशेष से डराने का इरादा रखते हैं और उसी के कंधों पर हिंसा और वैमनस्य से मुक्त आधुनिक भारत के निर्माण की ज़िम्मेदारी भी डालना चाहते हैं। अपने (हिंसक)अतीत में लौटने का दुस्साहस कोई ऐसा नेतृत्व ही कर सकता है जो शुरुआत करते ही रास्ता भटक गया है, उसे अपने आगे बढ़ने का कोई मार्ग नहीं सूझ रहा है, वह उस अंधकार को चीरने से घबरा रहा है जिसके आगे रोशनी है और वह उसी स्थान पर लौटने की ज़िद और जल्दी में है जहां से उसने अपनी महत्वाकांक्षी यात्रा प्रारम्भ की थी।
इस तरह के (साम्प्रदायिक)अतीत में योजनापूर्वक लौटना एक ऐसी मनःस्थिति है जिसमें ऐसा मान लिया जाता है कि अनुभव करने के लिए सुखद और सौंदर्यपूर्ण कुछ भी नहीं बचा है। व्यक्ति सिर्फ़ ख़ौफ़नाक दृश्यों और कहानियों की ही तलाश करने लगता है जिनके पात्रों में उसकी कल्पना के नायक छुपे हुए हैं। इस तरह की योजना (या साजिश) के लिए किसी ‘ब्लू व्हेल चैलेंज’ की तर्ज़ पर कोई नाम भी सोचा जा सकता है। ऐसी स्थितियाँ तब बनती हैं जब राष्ट्र नए नायकों को गढ़ने या ढालने का उपक्रम बंद कर देता है। नई कहानियाँ, नई वादियों की तलाश इरादतन रोक दी जाती है। फ़िल्म इंडस्ट्री एक बड़ा उदाहरण है कि अतीत की विडंबनाओं को रोमांटिक तरीक़े से पेश करके किस तरह पैसे भी कमाए जा सकते हैं और नक़ली ‘देशभक्तों’ की फ़ौज भी खड़ी की जा सकती है।
विभाजन की विभीषिका को एक स्मृति दिवस के रूप में मनाने के पीछे के मक़सद को ढूँढने की मैंने कोशिश की थी पर सफलता नहीं मिली।कुछ संकेत ज़रूर मिले कि इस बहाने से विभाजन के ‘असली’ दोषियों की नए सिरे से पहचान प्रकट की जा सकती है। आज़ादी की लड़ाई में ‘असली’ आहुति देने वाले देशभक्तों की संशोधित सूची देश के समक्ष पेश की जा सकती है। एक समुदाय के लोगों ने दूसरे समुदाय के लोगों को किस तरह से ‘मारा होगा’ के विवरण उन हिंदू-मुस्लिम-सिख-ईसाई बच्चे-बच्चियों के साथ साल-दर-साल बाँटे जा सकते हैं जो अभी एक ही स्कूल, एक ही कक्षा में साथ-साथ बैठकर पढ़ रहे हैं, एक साथ खड़े होकर सर्व धर्म समभाव की प्रार्थना कर रहे हैं, एक ही मैदान पर खेल रहे हैं और एक साथ खाना खा रहे हैं।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश के शहर मुरादाबाद की एक मध्यमवर्गीय रहवासी कॉलोनी को लेकर दो साल पहले एक खबर छपी थी। खबर की शुरुआत यहाँ से होती है कि कॉलोनी के रहवासी प्रतिदिन क्षेत्र के एक मंदिर पर एकत्र होकर इस बात पर विरोध प्रकट करते हैं कि इलाक़े में बहुसंख्यकों के द्वारा ख़ाली किए गए दो मकान अल्पसंख्यक वर्ग के लोगों को क्यों बेच दिए गए ! मंदिर के प्रवेश द्वार पर एक बैनर भी लगा दिया गया जिस पर लिखा हुआ था कि ‘ पूरी कॉलोनी बिकाऊ है और रहवासी सामूहिक पलायन करना चाहते हैं। रहवासियों के मुताबिक़ : ‘जब एक ऐसी समझ बनी हुई है कि ‘वे’ उनके इलाक़ों में रहेंगे और ‘हम’ हमारे में तो ‘वे’ ज़बरदस्ती यहाँ आकर माहौल क्यों बिगाड़ना चाहते हैं ? हमारी संस्कृति और त्योहार सब उनसे अलग हैं ।’
पाकिस्तान कोई एक दिन में नहीं बना होगा और न ही विभाजन कोई एक तय तारीख़ पर ही सम्पन्न हो गया होगा। जो विभाजन वर्ष 1947 में पंद्रह अगस्त के पहले हुआ होगा वह आज भी जारी है। हर शहर और बस्ती में नए-नए पाकिस्तान इसीलिए बन रहे हैं कि लोग साथ में रहने या दूसरों को अपने साथ में रहने देने के लिए तैयार नहीं हैं।विभाजन की हिंसक-अहिंसक और मौन विभीषिकाएँ तो हरेक दिन महसूस की जा रही हैं। ’स्मृति दिवस’ किस-किस विभीषिका के मनाए जाएँगे?
एक राष्ट्र के तौर पर हमें अब यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि साम्प्रदायिक सद्भाव, आपसी एकता और भाईचारे के नाम पर पिछले सात से अधिक दशकों से जो कुछ भी चलता रहा है, जो भी नारे और बैनर ईजाद होते रहे हैं, ‘सबको सन्मति दे भगवान’ और ‘ए मालिक तेरे बंदे हम’ टाइप जो गीत और भजन तैयार किए जाते रहे हैं वे सब दरअसल में बनावटी या मुखौटा भर थे, मात्र चुनावी स्टंट रहे हैं। सच यही है कि देश के जनमानस की असलियत भिन्न है जिसे पिछले तमाम सालों में दबाकर रखा गया और वह अब रिसकर बाहर आ रही है।
अतीत की किन-किन पहचानों को ख़त्म करना है और किन्हें पुनर्जीवित कर उनकी प्राण-प्रतिष्ठा करना है, यह सब किसी ऐसे दूरगामी राजनीतिक-सांस्कृतिक एजेंडे का ही हिस्सा हो सकता है जिसमें भावनाओं या मानवीय संवेदनाओं के लिए हाशिए पर भी कोई जगह नहीं छोड़ी गई हो। राजनीति में विपक्ष या प्रतिरोध के प्रति निर्ममता को जब अनिवार्य मान लिया जाता है तो फिर उसका इस्तेमाल देश के सांस्कृतिक-धार्मिक ‘पुनरुत्थान’ में भी करना आवश्यक हो जाता है। ऐसी स्थिति में प्रतिपक्ष भी छटपटाने लगता है और वास्तविक अतीत भी अपने संरक्षण के लिए याचक की मुद्रा में आ जाता है। इस तरह के संघर्षों में नागरिक की कमजोर उपस्थिति क्रमशः गौण होती जाती है। इस समय ऐसा ही हो रहा है।
-श्रवण गर्ग