कीर्ति राणा
एक साथ 36 निर्दोष लोगों की धधकती चिताओं के साक्षी बने शहर को सरकार से यह पूछने का हक है कि आप वाकई आए हैं ऐसा लगा क्यों नहीं? जिस तरह इस बार आए वैसे तो हजारों बार आते रहे हैं सपनों के शहर में। आपसे पहले तो बुलडोजर आ जाना था, जिन्हें आप की पुलिस ने गैर इरादतन हत्या का आरोपी मान प्रकरण दर्ज कर लिया, उनके प्रति भी व्यवहार में सज्जनता ही रखनी है तो उन उजड़े-बिलखते परिवारों को कैसे विश्वास होगा कि आप उसी शहर को अपना कहते हैं जहां गली-गली अहिल्या देवी को अपने पुत्र को दंडित करने के किस्से दोहराए जाते हैं। आप के साथ फोटो सेशन को उतावले खास चेहरों को देख कर ही सूख चुके आंसुओं वाले चेहरों को अंदेशा हो गया था कि जो उनकी नजर में दोषी हैं उनका तो बाल भी बांका नहीं हो पाएगा।
बावड़ी हादसे वाले घटना स्थल से लेकर जलती चिताओं के साक्षी रहे कमिश्नर, पुलिस कमिश्नर से लेकर कलेक्टर तक को इस हादसे के खलनायकों की यदि जानकारी नहीं है तो यह उनकी सजगता पर भी सवाल है। सरकार को प्रदेश की छोटी से छोटी घटना से हर सुबह ब्रीफ करते रहे विश्वस्त अधिकारी ने पुलिस कमिश्नरी मुख्यालय में हुए इस अकल्पनीय हादसे के असली कारणों से जुड़े लोगों का सरकार को उसी दिन इन पुट नहीं दिया हो यह भी विश्वास नहीं होता। सरकार और मुख्यमंत्री के बीच फर्क कैसे नजर आता है, इसके लिए यूपी की बार्डर तक ही तो जाना था। कम से कम इस बार तो पीड़ित परिवारों को तो यह लगना ही था कि तुरंत फैसला सिर्फ यूपी के बुलडोजर बाबा ही करना नहीं जानते। जब चुनाव सिर पर हों तब तो आपके आने में इस बार नायक वाला हीरो दिखना चाहिए था।
असंतोषी नेता-कार्यकर्ताओं को तो रिझाने में कोई सानी नहीं लेकिन व्यवस्था के साथ भी हमेशा गलबहियां वाले व्यवहार का ही नतीजा है कि ‘गाड़ दूंगा’ जैसी दहाड़ भी बेअसर होती नजर आई है। हर सावन में महाकाल की सवारियों के साक्षी रहने के दौरान किसी पंडे-पुजारी ने यह बताया ही नहीं कि एक सवारी में महाकाल का तांडव मुखौटा भी चांदी के होदे में हाथी पर विराजित रहता है। भोपाल में जब प्रधानमंत्री आ रहे हों तब तो सुबकते इंदौर और उद्वेलित प्रदेश को इस बार शिव के मोहिनी स्वरूप की अपेक्षा कतई नहीं थी। लोक लुभावन घोषणा को इवेंट में बदलने को उदार रहने वाली सरकार को हर दिन तो सख्त फैसले वाली परीक्षा नहीं देना पड़ती फिर मिसाल कायम करने में और कौन से मुहूर्त का इंतजार?