उज्जैन : भारत की चार क्रान्तियाँ वैदिक, बुद्ध, महावीर और पुनरुत्थान से मानी जा सकती हैं। ये कदाचित् भारत में ही संभव हुई हैं। प्रकृति, संस्कृति और विकृति से तीन धाराएँ हैं। इन्हें परिभाषित करते हुए नये युग में सेतुधारा का कार्य समरसता करती है। पं. दीनदयाल उपाध्याय का एकात्मवाद इनके मूल में है। ललित कलाओं का रसास्वादन करते समय में नीति शृंगार और वैराग्य की वीथिका से ही निकलना पड़ता है। शब्द को तरलता के साथ साहित्य का प्रसार जनसमाज में होना चाहिये।
समाज को दिशा देने के लिये भर्तृहरि के विचारों को सम्प्रेषित करने की आवश्यकता है। भर्तृहरि की शतक गायन परम्परा के संरक्षण के लिये प्रयत्न करना चाहिये। ये विचार विक्रम विवि के पूर्व कुलपति आचार्य रामराजेश मिश्र ने कालिदास संस्कृत अकादमी द्वारा आयोजित भर्तृहरि प्रसंग के शुभारंभ अवसर पर अध्यक्षीय उद्बोधन में व्यक्त किये।
मुख्य अतिथि के रूप में बोलते हुए साहित्य अकादमी, भोपाल के निदेशक डॉ.विकास दवे ने कहा कि साहित्य में विमर्श का चिन्तन करने पर पता चलता है कि साहित्येतर काल में विकृति की पराकाष्ठा हुई है। समरसता भारत की मूल आत्मा है। भारतीय मनीषा त्याग को परिभाषित करती है। अनेक वर्षों से भारतीय चेतना को असहिष्णुता के नाम से प्रस्तुत किया गया है। जबकि समरसता हमारी धमनियों में बहती है। जिन्होंने असहिष्णु शब्द गढ़ा वे समरसता के शत्रु हैं। समग्र उपभोगों को भोगते हुए वैराग्य की ओर जाना भर्तृहरि का संदेश है। भर्तृहरि ने राजकार्य और संन्यास के मध्य समन्वय का अनुपम उदाहरण दिया है।
सारस्वत अतिथि प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा ने कहा कि दक्षिण एशियाई संस्कृति के विकास के मूल में भर्तृहरि का प्रमाण स्पष्ट परिलक्षित होता है। भर्तृहरि के संबंध में पुरातात्त्विक साक्ष्य मिलते हैं। लोकसाक्ष्य की दृष्टि से भर्तृहरि अजर-अमर हैं। शैव-शाक्त-वैष्णव, जैन-बौद्ध आदि के सिद्धांतों का समन्वय भर्तृहरि के साहित्य में मिलता है। भर्तृहरि के माध्यम से सांस्कृतिक धाराएं उत्पन्न हुईं।
इस अवसर पर अतिथियों ने अकादमी द्वारा प्रकाशित शोध पत्रिका ‘कालिदास’ का लोकार्पण किया। अतिथियों का स्वागत अकादमी की निदेशक श्रीमती प्रतिभा दवे, डॉ.योगेश्वरी फिरोजिया तथा डॉ.संदीप नागर ने किया। स्वागत भाषण डॉ.संतोष पंड्या ने दिया। कार्यक्रम का संचालन सुश्री रश्मि बजाज ने किया।
समरसता पर केन्द्रित संगोष्ठी संपन्न
समरसता हमारी संस्कृति का प्रमुख अंग है। भर्तृहरि राजयोगी थे। उनके शासन में भेदभाव नहीं था। वे मानव कल्याण, सद्भाव, समरसता के उपासक थे। डॉ.पूरण सहगल, मनासा ने संगोष्ठी की अध्यक्षता करते हुए उक्त विचार व्यक्त किये। विशिष्ट अतिथि के रूप में प्रो. अजिता त्रिवेदी ने कहा कि भारतीय इतिहास का सातत्य वैसा नहीं है जैसा पाश्चात्य जगत में मिलता है।
भर्तृहरि ने अपने विचारों को सुभाषितों के रूप में व्यक्त किया और इनका तीन शतकों के रूप में वर्गीकरण बाद में हुआ। इस अवसर पर डॉ.विवेक चैरसिया, डॉ.प्रद्युम्न भट्ट, भानपुरा, डॉ.अखिलेशकुमार द्विवेदी, डॉ.नवीन मेहता, सांची, डॉ.आरसी ठाकुर महिदपुर ने अपने आलेख प्रस्तुत किये। डॉ.स्वामीनाथ पाण्डेय के आलेख का वाचन डॉ.संतोष पण्ड्या ने किया। अतिथियों का स्वागत एवं आभार श्रीमती प्रतिभा दवे ने किया।
आज होगा समापन
द्वि-दिवसीय भर्तृहरि प्रसंग का समापन रविवार सायं 5 बजे होगा। इसके अंतर्गत भर्तृहरि साहित्य पर केन्द्रित शास्त्रीय कथक एवं लोकनृत्यों की प्रस्तुति इंजी. प्रतिभा रघुवंशी के निर्देशन में प्रतिभा संगीत एवं कला संस्थान के कलाकारों द्वारा दी जाएगी। कार्यक्रम श्री श्रीपाद जोशी, वरिष्ठ रंगकर्मी के विशिष्ट सन्निधि में आयोजित होगा।