पुष्पेन्द्र वैद्य
रीवा की घटना सोशल मीडिया में जंगल में आग की तरह फैली हुई है। जितने मुँह उतनी बातें। सब अपनी- अपनी ताल ठोक रहे हैं। रीवा में पत्रकार साथियों पर पुलिस की बर्बरता ने कहीं भीतर तक हिला दिया। इस घटनाक्रम के पीछे विधायक, सत्ता का पॉवर, पुसिसिया डंडा या फिर कोई और वजह हो, पत्रकारिता का पतन साफ़ दिखाई देता है। ज़्यादातर मीडिया संस्थानों पर आज पार्टियों की छाप है। टीवी चैनलों पर सत्ता और राजनीतिक दलों का कट्टरवाद इस क़दर छाया हुआ है कि चैनलों पर एक दूसरे पत्रकारों की छीछीलेदार की जाना आम बात हो गई है। पत्रकारों के खास दो धड़ हो गए हैं। सत्ताधारी दल के साथ या उसके ख़िलाफ़। पत्रकारिता की पहली पाठशाला में पढ़ा और पढ़ाया जाता है पत्रकारिता स्थायी विपक्ष की भूमिका में होता है। निष्पक्ष। सरकार को आईना दिखाना और जनहित को मुद्दों को उठाना। मगर आज दोनो ही लगभग नदारद हैं। जब बडे-बडे मीडिया संस्थान ही अपनी पगड़ी उतार चुके हैं तो बाक़ी की क्या बिसात। सबसे ज्यादा मरण उन ज़मीनी पत्रकार साथियों का है जो दिन रात कोल्हू के बैल की तरह जुते रहते हैं। ज़ाहिर है उनकी हालत न घर की है न घाट की। जरुरत है मीडिया में कट्टरवाद को छोड़ने की। सत्ता और राजनीतिक पार्टियों से अपना गहरा नाता तोड तटस्थता अपनाने की। नहीं तो हर शहर से रीवा की तरह की तस्वीरें हर दिन निकल कर आएँगी और हम इसी तरह हाथ मलते रह जाएँगे।