नितिनमोहन शर्मा
पूरी पूरी पूरन मासी। पुरयो पुरयो पोष का चंदा। पूर्णिमा का चांद जब कल आसमान पर अपनी धवल चांदनी बिखेर रहा था तो कितना सुंदर और शीतल लग रहा था। तुम्हारां साथ जो उसे मिल गया था। तुम आई तो दिन के सूरज को चांद कर दिया और रात के चांद को सर्द-शीतल। पूस की वो रात भी याद आ गई जिसमें तुम पूरे शबाब पर थी। ‘ हलकू ‘ और ‘ जबरा ‘ के तो जैसे तुम प्राण ही हर लेती। पर तुम तो शीतल हो न। शीतलता ही देती हो। जैसे अहिल्या के इस आँगन में तरसाकर बरसा रही हो। नही तो हम तो उदास हो गए थे कि तुम…कहा हो गुम?
आ गई अब तुम। वाह। क्या बनठन कर आई हो। क्या रंगत लेकर आई हो। आते ही चेहरे सुर्ख और गाल ग़ुलाबी कर दिए। नजरें और नज़ारे तुम्हें अपलक निहार रहे हैं। देर से आई पर पूरे शबाब के संग आई हो। रुनुक झुनुक करती हुई। इठलाती हुई। शरमाती हुई। लजाती हुई। सरर सरर बयारों का श्रंगार कर आई हो। कोहरे-धुंध की बारात सजाकर लाई हो। हमारी मनुहार पर मानी हो न? नही तो न जाने कहाँ अटकी हुई थी। दुबकी हुई थी। कार्तिक से तुम्हारी बाट जोह रहे थे।
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हमने तो ‘भुवन भास्कर’ के जरिये तुम तक मन की पाती भी पहुंचाई थी की कहा हो तुम..गुम? पौष में पसीने का उलाहना भी दिया था न? न देते तो तुम तो जैसे रूस ही गई थी मालवा के इस आँगन से। तुम्हारां प्रिय पौष माह भी बीता जा रहा था। पर दयालु हो तुम। पोष का मान रख लिया तुमने। नही तो बेचारा पोष उदास मन से तुम्हे मिले बगेर ही बेमन से बिदा हो जाता। ‘पूस की रात’ की भी लाज रख ली तुमने। ‘हलकू’ तो अब भी थरथरा रहा है। पर खुश है। तुम्हारे बहाने ही सही, इस ‘तिजारती’ दौर में आज भी वो याद किया जा रहा है। मालिक खुश तो ‘जबरा’ भी कू कुँ कर उछल कूद कर खुशी जाहिर कर रहा है। अब आ गई हो तो रुकना। जल्दी मत करना बिदा होने की।
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तुम्हारे स्वागत वंदन के पूरे बंदोबस्त है। लुढकता-गुड़कता पारा साफ बता रहा है तुम रूठी न हो हमारे अंचल से। आते ही ऐसा आँचल फहराया है तुमने की जिस ‘दिनकर’ के जरिये हमने तुम्हे उलाहना दिया था, वो ही सूरज…अब चंदा मामा सा हो गया है। तुम्हारे आने की खुशी में उसने भी अपनी ऊष्मा रश्मियों को समेट लिया है ताकि सब तरफ तुम्हारां ही जलवा कायम रहे। दिसम्बर तुम्हारे इंतजार में ही बीत गया। तुम नही आई तो पारे ने तेवर दिखाए ओर वो 28 डिग्री तक जा पहुंचा था। राते भी 18 डिग्री के संग मुंह चिड़ा रही थी कि कहा है तुम्हारी ठंड रानी…!!
तुम्हारे आने के इंतजार में अब तक गज़क की गर्मी अटकी हुई थी। दूध का कड़ाव रोज भट्टी पर चढ़ तो रहा था…पर उसमे वैसा उबाल नही आ रहा, जैसा तुम्हारी ‘भर चक ‘मौजूदगी में आता है। अब तक कड़ाव चढ़ तो रहा था लेकिन अकेला था। अब सब उसको घेरकर खड़े है। तिल के लड्डु भी तुम्हारी बाट जोह रहे थे कि तुम आओ तो चढ़े कड़ाही ओर बने गुड़ की चाशनी। गाजर की सुर्खी हलवे का शक्ल नही ले पा रही थी। मुंह बिचका रहे शाल-दुशाले खुश है। जो रजाईयां तुम्हारे नही आने से आंखे तरेर रही थी, अब सब तरफ उनका ही राज है।
रूठी प्रेयसी सी तुम लौट आई ठंड। मालवा का ये पठार साल के दस महीने पसीना पसीना ही होता है। महीने दो महीने का तुम्हारां लाड़ दुलार मिलता है। इस बार तो लगा तुम रूठ ही गई हो। अब आ गई हो तो सब पर जी भरकर प्यार लुटाकर ही बिदा होना। हा पर ध्यान रखना। तेवर ज्यादा तीखे मत कर लेना। पता है तुम्हे आज भी कई कई ‘हलकू’ सपरिवार खुले आसमान के नीचे ‘पूस की रात’ गुजारते है।